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कर्तृ-कारक
૧૨૧ है कि केवल उन्हीं स्थितियों में नहीं, अपितु सभी प्रयोज्यों को कर्मसंज्ञा हो जायगी। इसका समाधान भर्तृहरि की इस कारिका में देखा जा सकता है
'गुणक्रियायां स्वातन्त्र्यात्प्रेषणे कर्मतां गतः ।
नियमात्कर्मसंज्ञायाः स्वधर्मेणाभिधीयते' ॥ -वा० ५० ३।७।१२७ प्रयोजक के प्रेषण-व्यापार में पराधीन होने पर भी प्रयोज्य अपने व्यापार में स्वतंत्र ही रहता है । न तो प्रयोज्य अपनी स्वतंत्रता का परित्याग करता है और न प्रयोजक ही उसकी स्वतंत्रता का खंडन करता है । यदि ऐसी बात नहीं होती तो प्रयोज्य के काम न करने की स्थिति में कारयति' प्रयोग नहीं होता। हम इस विषय में पतंजलि का विवेचन देख चुके हैं । अत: सामान्यतया स्वतंत्र होने के कारण प्रयोज्य को कर्तृसंज्ञा होती है तथा तदनुकूल 'कर्तृकरणयोस्तृतीया' (पा० सू० २।३।१८ ) से अनभिहित कर्तृत्व के कारण तृतीया-विभक्ति होती है - पाचयत्यन्न बटुना। यह ठीक है कि 'गतिबुद्धि० आदि सूत्र तथा उसके अन्तर्गत आने वाले वार्तिकों से परिस्थितिविशेष में कर्मसंज्ञा नियमित होती है । किन्तु यह कहना कि सभी प्रयोज्य प्रेषणादि व्यापार से आप्यमान होने के कारण कर्मसंज्ञक है, बिलकुल अनर्गल कथन है । इसी से भर्तृहरि ने कारिका में कहा है कि इन स्थितियों में कर्मसंज्ञा का नियम-विशेष होने के कारण सामान्यतया ( गत्यादि धातुओं से अन्यत्र ) प्रयोज्य को अपने धर्म अर्थात् कर्तृ संज्ञा के ही रूप में निर्दिष्ट किया जाता है।
इस स्थान पर हेलाराज भी एक प्रश्न उठाते हैं कि प्रेषणव्यापार होने पर भी जब प्रयोज्य की स्वतंत्रता की निवृत्ति नहीं होती तब सर्वत्र कर्तृसंज्ञा ही परत्व के कारण होनी चाहिए । 'गतिबुद्धि०' आदि सूत्र का नियम क्यों किया जाता है ? यदि कर्तृसंज्ञा के प्रसंग में कर्मसंज्ञा का आरम्भ करते हैं तो यह नियम नहीं अपितु विधि है, क्योंकि कर्मसंज्ञा की आत्यन्तिक अप्राप्ति है, पाक्षिक प्राप्ति नहीं । इसका उत्तर यह है कि व्याकरण-शास्त्र में गौण तथा प्रधान क्रियाओं के विषय में गौण तथा प्रधान शक्तियां होती हैं, जिनमें प्रधान शक्ति ही अपने कार्य का प्रयोग करती है, गौण शक्ति नहीं । अब हमें यहां निर्णय करना है कि कौन-सा व्यापार प्रधान है ? प्रयोज्य का व्यापार तो धातु से वाच्य होता है तथा णिजर्थ का विशेषण भी है, इसलिए वह अप्रधान है। दूसरी ओर, प्रयोजक का व्यापार णिच् प्रत्यय से वाच्य होने के कारण प्रधान है । प्रकृत्यर्थ ( धात्वर्थ ) से अवच्छिन्न होने के कारण प्रत्ययार्थ सदा प्रधान होता है । किन्तु इसके साथ यह भी तथ्य है कि प्रकृति और प्रत्यय दोनों मिलकर प्रत्ययार्थ का कथन करते हैं । अतएव प्रयोजक के प्रत्ययार्थ वाच्य व्यापार की प्रधानता होने के कारण उसकी अपेक्षा रखते हुए कर्मशक्ति ही कार्य तक पहुँचाती है, अप्रधान
१. 'इह प्रयोज्यस्य प्रेषणाध्येषणादिना सर्वस्य प्रयोजकव्यापारेणाप्यमानत्वात् कर्मसंज्ञाप्रसङ्गः इत्याशक्याह' ।
-हेलाराज, पृ० ३३० २. 'विधिरत्यन्तमप्राप्ते नियमः पाक्षिके सति'। -अर्थसंग्रह, पृ० ५४