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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन 'समुद्रवद् व्याकरणं महेश्वरे तदर्धकुम्भोद्धरणं बृहस्पती ।
तभागभागाच्च शतं पुरन्दरे कुशाग्रबिन्दूत्पतितं हि पाणिनौ' ॥१ १३वीं शताब्दी के बोपदेव ने ८ आदिवैयाकरणों के नाम दिये हैं
'इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः ।
पाणिन्यमरजैनेन्द्रा जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ॥ ( मुग्धबोध, मंगलश्लोक ) इस श्लोक में बोपदेव स्वेच्छाचार से काम लेते हैं, क्योंकि कातन्त्रकार शर्ववर्मा के निकटतम ऋणी रहकर भी उसका नाम नहीं लेते। वे जयादित्य तथा वामन की अशोभन परम्परा की आवृत्ति करते हैं; जो चन्द्रगोमी के निकट ऋणी होकर भी काशकृत्स्न-तन्त्र की चर्चा करते हुए चन्द्र का नाम नहीं लेते। इसी प्रकार विभिन्न सम्प्रदायों का उल्लेख करते हुए कई आचार्य आर्जव का प्रदर्शन नहीं करते । कोई एक को छोड़ देते हैं तो कोई किसी अन्य को। १६ प्रमुख वैयाकरणों के सम्प्रदाय भारतवर्ष के विभिन्न भूभागों में न्यूनाधिक रूप से प्रचलित होने के कारण उल्लेख्य हैं, किन्तु इनमें कतिपय सम्प्रदाय लुप्त हो गये हैं। जो अवशिष्ट हैं वे भी समाप्तप्राय हैं । इनका संक्षिप्त विवरण आगे प्रस्तुत किया जा रहा है।
दस सम्प्रदायों का संक्षिप्त इतिहास (१) कातन्त्र-प्रचार तथा साहित्य-सम्पत्ति की दृष्टि से पाणिनितन्त्र के बाद कातन्त्र का ही स्थान है। इसी का दूसरा नाम कालाप या कौमार भी है। कातन्त्र शब्द युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार काशकृत्स्न-तन्त्र का संक्षिप्त रूप है । इस व्याकरण में अष्टाध्यायी के आधार पर सूत्रों की रचना हुई है, किन्तु उनका कम प्रक्रिया के अनुसार रखते हुए वैदिक-प्रकरण को सर्वथा छोड़ दिया गया है। मूल कातन्त्र में तीन अध्याय ( आख्यात भाग तक ) थे, जिनकी रचना सातवाहन ( प्रथम शती ई० पू० ) के समकालिक शर्ववर्मा ने की थी। इसमें संज्ञा, सन्धि, शब्दरूप, कारक, समास, तद्धित तथा तिङन्त ( आख्यात ) प्रकरण हैं । कृदन्त के रूप में चतुर्थ अध्याय की रचना किसी कात्यायन ने की थी। इस प्रकार पूरे व्याकरण में १४१२ सूत्र हैं तथा इनके अतिरिक्त पाणिनि-तन्त्र के समान अनेक वार्तिक भी हैं। भारत में मुख्यतः बिहार, बंगाल तथा गुजरात प्रदेशों में कातन्त्र का अधिक प्रचार रहा है, किन्तु किसी समय भारत से बाहर भी इसका प्रचार था; क्योंकि मध्य एशिया से इसके कुछ भाग प्राप्त हुए हैं । निश्चय ही बौद्धों के द्वारा ये वहाँ पहुँचे होंगे।
कातन्त्र पर प्राचीनतम वृत्ति दुर्गसिंह की है। इसने मयूर के सूर्यशतक (श्लोक २ ) तथा किरातार्जुनीय (१८) का उद्धरण दिया है (कातन्त्र० ३।५।४५),
१. गुरुपद हाल्दार, व्या० द० इति०, पृ० ४६५ पर उद्धृत । २. वही, पृ० ४३६ ।