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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
होती है, अर्थात् प्रथमान्तार्थमुख्यविशेष्यक बोध होता है । 'राम: ओदनं पचति' इस कर्तृवाच्यस्थ वाक्य का शाब्दबोध होगा - 'ओदनवृत्ति - विक्लित्त्यनुकूल व्यापारानुकूल - कृतिमान् एकत्वविशिष्टो देवदत्तः' । यही वाक्य यदि कर्मवाच्य में हो जाय तो 'ओदन' प्रथमान्त हो जायेगा तथा वह विशेष्य के रूप में रहेगा --- 'रामसमवेता या कृति: तज्जन्यो यो व्यापारः तज्जन्या या विक्लित्तिः तदाश्रय एकत्वविशिष्ट ओदनः ' । नैयायिकों का मुख्य अभिनिवेश प्रत्ययार्थ के निरूपण में है । वैयाकरणों में वाच्यानुसार क्रियामुख्य- विशेष्यक शाब्दबोध को स्पष्ट करने की रीति है । अतः कतवाच्य में व्यापारमुख्य- विशेष्यक बोध और कर्मवाच्य में फलमुख्य- विशेष्यक बोध होता है ।
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सकर्मक तथा अकर्मक धातु का अर्थ
इस प्रकार वाच्य परिवर्तन के मूल में फल तथा व्यापार के महत्त्व का यह परिवर्तन ही काम करता है । किन्तु ऐसा कभी नहीं होता कि वे एक-दूसरे को त्याग दें। दोनों का अविच्छेद्य सम्बन्ध है, दोनों ही मिलकर धात्वर्थ होते हैं । वाच्यों की विभिन्नता के कारण उनके महत्त्व में अन्तर आता है । कोई धातु इसीलिए सकर्मक कहलाता है कि फल तथा व्यापार भिन्न अधिकरणों में रहते हैं । पच्-धातु सकर्मक है, क्योंकि फल ( विक्लित्ति ) तथा व्यापार ( अग्नि प्रज्वालन आदि ) रूप धर्म के धर्मी (आश्रय ) पृथक्-पृथक् हैं । व्यापार तो पाककर्ता में है, किन्तु फल ओदनादि कर्म में स्थित है । यद्यपि फल तथा व्यापार-ये दोनों एक ही धातु के अर्थ हैं, किन्तु इनके आश्रय ( या अधिकरण ) भिन्न-भिन्न होते हैं । व्यापार का आश्रय फल के आश्रय से भिन्न है । सकर्मक धातुओं की यही विशेषता है । इन धातुओं की स्थिति में यह आश्रय-भेद ही फल या व्यापार के महत्त्व-भेद को सम्भव बनाता है । यदि दोनों का श्रय एक ही होता, जैसा कि अकर्मक धातुओं की स्थिति में होता है, तो उक्त महत्त्व द कभी सम्भव ही नहीं होता ।
अकर्मक धातु वह है जिसमें धातु के फल और व्यापार का आश्रय एक ही पदार्थ होता है; जैसे - शी ( शयन करना ), लज्ज् ( लजाना ) आदि । यहाँ नेत्रनिमीलन, पादप्रसारण, पक्षपरिवर्तन आदि शयन-क्रिया के व्यापार तो उसके कर्ता में निहित हैं। ही, उसके फल के रूप में जो श्रान्ति की उपलब्धि होती है वह भी उसी कर्ता में है । 'देवदत्तो भवति ( उत्पद्यते इत्यर्थः ) ' यहाँ भू-धातु का उत्पत्ति रूप फल तथा बहिनिसरणरूप व्यापार – ये दोनों देवदत्त में ही स्थित हैं । नागेशभट्ट का कथन है कि कभी-कभी एक दूसरे प्रकार से व्यापारमात्र के वाचक धातु को अकर्मक कहा जाता है, जैसे- 'अस्ति' । यहाँ केवल सत्ता ही अर्थ है, सूक्ष्म दृष्टि से भी फलांश की प्रतीति
१. न्यायकोश, पृ० ३९२ ।
२. ' फलव्यापारयोरेकनिष्ठतायामकर्मकः ।
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धातुस्तयोर्धमभेदे सकर्मक उदाहृतः ॥
३. प० ल० म०, पृ० १७८ ।
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० भू०, कारिका १३