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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
से निरूपित होती हैं; यथा-विष की मारण-शक्ति तथा बीज की अंकुरोत्पादन-शक्ति । ( ४ ) कुछ शक्तियों को अतिशय प्रभाव के कारण रूपान्तरित भी किया जा सकता है; जैसे योगी सभी पदार्थों का रूपान्तरण करके उनमें अभिनव शक्ति उत्पन्न करते हैं। ( ५ ) कुछ शक्तियों को काल के वश में व्यक्त होते हुए देखा जाता है; जैसे ----धर्माधर्म की शक्ति फल-प्रदान करने में । इस प्रकार शक्तियों के अनेक स्वभाव हैं।
शक्ति का पारमार्थिक तथा व्यावहारिक स्वरूप-भेद स्वीकार कर लेने पर यह कहा जा सकता है कि नित्य तथा अनित्य पदार्थों की शक्तियों में भी भेद होता है । अनित्य पदार्थों में अपने शरीर से ही शक्ति का उद्भव होता है, जबकि नित्य पदार्थों में स्वाभाविक शक्ति रहती है । ये शक्तियाँ ही साधन भी कहलाती हैं, क्योंकि शक्ति अथवा साधन का क्रिया-निष्पत्ति में समान योगदान रहता है। विभिन्न पदार्थों की शक्तियाँ किसी-न-किसी क्रिया का ही सम्पादन करती हैं, क्योंकि कार्योत्पादन ही उनके शक्ति होने का प्रमाण है । दूसरी ओर साधन या कारक भी किसी क्रिया के सम्पादन में ही कृतार्थ होते हैं । अतएव दोनों की एकरूपता अनिवार्य है। इसलिए भर्तृहरि ने साधन का लक्षण करते हुए कहा है
'स्वाश्रये समवेतानां तद्वदेवाश्रयान्तरे।
क्रियाणामभिनिष्पत्तो सामयं साधनं विदुः ॥ -वा०प० ३७१ क्रियाओं की निवृत्ति में द्रव्य की शक्ति साधन है। पतञ्जलि ने जो 'परोक्ष लिट्' ( पा० सू० ३।२।११५ ) की व्याख्या में गुण या गुण-समुदाय को साधन कहा है, उस कथन का अभिप्राय यही है कि शक्ति अपने आधार ( द्रव्य .) के अधीन विकसित होती है, इसीलिए इसे गुण कहते हैं। हम जानते हैं कि गुण द्रव्याश्रित होता है, अतः गुण को शक्ति या साधन कहा गया है, क्योंकि कारक भी द्रव्याश्रित है। अतः द्रव्याश्रितत्व-सामान्य के आधार पर पतञ्जलि ने गुण को वहाँ साधन कहा है। स्थिति यह है कि शक्ति निराधार रह ही नहीं सकती। चाहे ब्रह्म हो, चाहे शब्द, घट हो या पट-शक्ति को कुछ-न-कुछ आधार मिलना ही चाहिए । इसीलिए शक्ति का अनुमान किया जाता है ( साधनमप्यनुमानगम्यम्-भाष्य ३।२।११५ ) । इस अनुमान का लिङ्ग क्रियारूप कार्य है । क्रिया शक्ति का प्रयोजन ( फल ) है, क्योंकि शक्ति से वह साध्य है।
भर्तहरि ने अपनी उक्त कारिका में क्रिया के दो रूप दिये हैं-स्वाश्रय समवेत तथा आश्रयान्तर में समवेत । क्रिया के दो अर्थों में व्यापार तथा फल हैं और उन्हें धारण करने वाले पदार्थों में क्रिया समवेत होती है । ये पदार्थ हैं-कर्ता और कर्म । कर्ता में क्रिया इसलिए समवेत है क्योंकि वह व्यापाररूप धात्वर्थ को धारण करता है। दूसरी
१. हेलाराज, वा०प० ३।७।२ की टीका में । २. व्याकरणदर्शनभूमिका, पृ० २१६ । ३. 'शक्तेः क्रियालक्षणकार्यानुमेयायाः कार्यद्वारेणव प्रकर्षः'। हेलाराज, पृ० २३१