________________
कारक तथा विभक्ति
सम्बोधन बियेपण हो जाता है। इसलिए किया की निप्पनि में इसका योगदान नहीं रहता। विशेषण विगेप्य को उत्पन्न नहीं कर सकता, प्रत्युत विशेष्य के साथ ( सगुणोत्पत्तिवाद ) या उसके अनन्तर ( निर्गुणोत्पत्तिवाद ) उत्पन्न होता है । 'स्तोक पचति' में क्रियाविशेषण होने के कारण ही स्तोक में किसी कारक का अभाव है, क्योंकि उससे क्रियासिद्धि नहीं होती। 'वजानि देवदन' इस वाक्य में व्रजन-क्रिया तथा देवदत्त का सामानाधिकरण्य ( एकत्रावस्थान ) भी नहीं है, इसलिए देवदत्त-स्थित राम्बोधन व्रजन-क्रिया का विशेषण भी है तो व्यधिक रण-सम्बन्ध से । भर्तृहरि ने इस स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है
_ 'सम्बोधनपदं यच्च तक्रियायां विशेषणम् ।
वजानि देवदत्तेति निघातोऽत्र तथा सति' ॥ --- वा० प० २।५ अर्थ यह है कि सम्बोधन विभक्ति वाला पद क्रिया का विशेषण होता है, जिससे 'वजानि देवदत्त' ( देवदत्त ! यह जान लो कि मैं जा रहा हूँ )- इसमें निघात हो सके। कात्यायन ने 'आमन्त्रितस्य च' (पा० ८।१।१९) सूत्र के अन्तर्गत एक वातिक दिया है कि निघात तथा युष्मद्-अष्मद् के आदेश ( त्वा, ते, वां, वः, मा, मे, नौ, नः ) समान वाक्य में ही होते हैं। अतः 'आमन्त्रितस्य च' सूत्र के अनुसार आमन्त्रित ( देवदत्त पद ) का निघात होने के लिए 'वजानि' के साथ समानवाक्यता होनी चाहिए, अन्यथा निघात ( पूरे पद का ? अनुदात्त हो जाना ) सम्भव नहीं। यदि 'बजानि' क्रिया के प्रति देवदत्त विशेषण हो जाय तो समानवाक्यता के साथसाथ निघात भी उपपन्न हो सकेगा। कात्यायन के अनुसार 'एकतिविशेष्यक वाक्यम्' यह वाक्य का लक्षण है २ । 'व्रजानि' तिङन्त पद विशेष्य के रूप में है, अतः उक्त पदों की वाक्यरूपता सिद्ध है। इसका बोध होगा-'देवदत्तसम्बन्धि-सम्बोधनविषयो मत्र्तकं गमनम्। भूषणसार के व्याख्याकार हरिवल्लभ अपने दर्पण में 'जानीहि' पद का अध्याहार करके देवदत्त-पद की एकवाक्यस्थता सिद्ध करते हुए शाब्दबोध कराते हैं- 'सम्बोधनविषय-देवदत्तोद्देश्यक-प्रवर्तनाविषयो मस्कर्तृकव्रजनकमकं ज्ञानम्' । इस अध्याहार को नागेश का भी समर्थन प्राप्त है ।
लघुमंजषा में ( पृ० ११८५-९२ ) नागेश ने अपेक्षाकृत विस्तार से सम्बोधन पद का विचार करते हुए अपने समस्त पूर्ववर्ती विचारों का संग्रह किया है। इन्होंने १. (क) 'सम्बोधनान्तस्य क्रियायामन्वयः' ।
-वै० भ०, पृ० ६४ (ख) 'विशेषणमिति । स्वोद्देश्यकप्रवर्तनाविषयत्वरूपपरम्परासम्बन्धेनेत्यर्थः' ।
-भूषणसारदर्पण, पृ० ८९ २. वे० भू०, पृ० ६५ ।। ३. भूषणसारदर्पण, पृ० ९०।
४. "वजानि देवदत्त इत्यादावपि 'जानीहि' इत्यादिः शेषो बोध्यः । तत्र वजनस्य कर्मत्वाद् देवदत्तस्योद्देश्यत्वादुभयोः समानवाक्यस्थत्वम्"।--ल० श० शे०, पृ०४०१