________________
कर्तृ-कारक
९०७
साधन में लगा ही है तथा काम करने में स्वतन्त्र है । कैयट ने इस सन्दर्भ में भाष्यकार का वचन प्रमाण माना है - 'न हि कश्चित्परोऽनुग्रहीतव्य इति प्रवर्तते, सर्व इमे स्वभूत्यर्थं यतन्ते' । सब अपने-अपने स्वार्थ-साधन में लगे हैं, कोई दूसरे पर अनुग्रह करने के लिए अपना काम नहीं करता । चेतन की यही विशेषता है।
स्वतन्त्र तथा अस्वतन्त्र का निश्चय प्रयोज्य ( प्रेषित ) पुरुष में क्रिया वा अक्रिया देखकर किया जाता है कि काम करने पर वह स्वतन्त्र है और यदि काम नहीं करता तो स्वतन्त्र भी नहीं है। पहली स्थिति में कारयति' का प्रयोग हो सकता है, दूसरी में नहीं। किन्तु पतञ्जलि अन्त में निर्णय देते हैं कि प्रेषित पुरुष यदि काम नहीं भी करे तो वह स्वतन्त्र है' तथा उस स्थिति में भी 'कारयति' का प्रयोग हो सकता है। बात यह है कि प्रयोजक जब किसी को प्रेषित करता है तभी हम हेतुमान् अर्थात् प्रेषणादि व्यापार के कारण 'कारयति' प्रयोग करते हैं। यह प्रयोग इसकी अपेक्षा नहीं रखता कि प्रयोज्य काम करेगा या नहीं। कार्य-सम्पादन पूर्णतया प्रयोज्य की इच्छा के अधीन है-वह करें या न करे । इस प्रवृत्ति-निवृत्ति-रूप इच्छा के होने से ही इसकी स्वतन्त्रता अक्षुण्ण रहती है । वह स्वतन्त्रता ही क्या जिसमें अपनी इच्छा से काम करने या न करने की छूट नहीं ? चूंकि ऐसी छूट प्रयोज्य को मिली हुई है अतः वह स्वतन्त्र है, कर्ता है।
प्रयोज्य को कर्ता मानने का संकेत पाणिनि ने भी किया है—'तत्प्रयोजको हेतुश्च' (१।४।५५ ) अर्थात् स्वतन्त्र कर्ता को प्रयोजित करनेवाले ( व्यापार में लगाने वाले, प्रयोजक ) को भी कर्तसंज्ञा होती है। साथ ही उसे हेतुसंज्ञा भी दी जाती है। इस सूत्र के आधार पर प्रयोजक को कर्ता तथा हेतु कह सकते हैं। प्रयोजक और प्रयोज्य सापेक्ष शब्द हैं—प्रयोजक जिसे काम में लगाता है, वही प्रयोज्य है । इस सूत्र में आये हुए 'तत्' पद के द्वारा अव्यवहित पूर्व में प्रयुक्त स्वतन्त्र कर्ता का ही परामर्श होता है, जो इस सन्दर्भ में (प्रयोजक-प्रयोग के कारण ) प्रयोज्य कर्ता के अतिरिक्त और कोई नहीं । तदनुसार हम अर्थ कर सकते हैं कि प्रयोज्यभूत स्वतन्त्र कर्ता का प्रयोजक भी कर्ता ( तथा हेतु ) कहलाता है। इसे संयुक्त करके 'हेतुकर्ता' कहने की परम्परा वैयाकरणों में देखी जाती है।
पतञ्जलि ने उपर्युक्त तथ्य को ध्यान में रखकर शंका ठायी है कि प्रेषणव्यापार में अस्वतन्त्र का प्रयोजक होने पर हेतुसंज्ञा नहीं हो सकती, हेतुसंज्ञा तभी होगी जब स्वतन्त्र व्यक्ति को प्रेषित किया जाय ( स्वतन्त्र-प्रयोजको हेतुसंज्ञो भवतीत्युच्यते )--परम्परा ऐसी ही है । अतएव यह सत्य है कि हेतु या प्रयोजक स्वतन्त्र कर्ता को ही प्रयोजित करता है । किन्तु प्रयोज्य को स्वतन्त्र मानने में एक कठिनाई आती है जिसका निर्देश एक वार्तिक में किया गया है—'स्वतन्त्रत्वात् सिद्धमिति चेत्,
१. 'यदि च प्रेषितोऽसौ न करोति, स्वतन्त्रोऽसौ भवति' । -भाष्य २, पृ० २७९