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कर्तृ-कारक
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प्रयोग भी कारण और कार्य अथवा प्रकृति-विकृति के बीच अभेद का प्रदर्शन करता है । इसलिए 'अङ्कुरो जायते' का अर्थ यही होता है कि सत् कारण अंकुर के रूप में एक नया रूप पाता है। यहाँ सन्देह का कारण है-प्रकृति-विकृति में पर्याय से गुणप्रधान भाव का होना । यदि प्रकृति प्रधान है और विकृत अंग, तो प्रधानभूत प्रकृति ही जन्धातु का कर्ता है और अंगभूत विकृति प्रधान के द्वारा उस क्रिया से सम्बद्ध होगी-इससे सामानाधिकरण्य सम्बन्ध है। और यदि तथ्य इसके विपरीत हो ( -विकृतिप्रधान हो, प्रकृति अंग ) तो विकृति कर्ता का काम करेगी। यहां सामानाधिकरण्य ही गुणप्रधानभाव-विषयक संशय का कारण है। इन दोनों में यदि भेद-निर्देश किया जाय ( व्यधिकरण-सम्बन्ध हो ) तो निश्चय ही विकृति को कर्ता बनाया जाता है, जैसे'बीजादङकुरो जायते' । 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' ( पा० सू० १।४।३० ) से प्रकृति तो अपादान है, विकार पर ही कर्तृत्व का भार आता है।
प्रकृति-विकृति का पर्याय से कर्तृत्व इस प्रकार दो भिन्न पक्ष हो जाते हैं-१. विकार को कर्ता मानना तथा २. प्रकृति को कर्ता मानना ।
(१) विकार को कर्ता माननेवालों का यह आशय है कि वस्तु का स्वरूप-लाभ करना 'जन्म' कहलाता है ( आत्मलाभस्य जन्माख्या ) और असत् पदार्थ ही आत्मरूप की प्राप्ति करता है ( असता चात्मा लब्धव्य: ) । अतएव पूर्व से असत् विकार ( कार्य ) का जन्म होता है अर्थात् वह जनि-क्रिया का कर्ता है। भर्तृहरि ने इसके समर्थन में दो निदर्शन दिये हैं । पहला निदर्शन 'क्लपि सम्पद्यमाने चतुर्थी वक्तव्या' (पा० २।३।१३ पर वार्तिक ) इस वार्तिक में है। इसका अर्थ है -सम् + पद-धातु के कर्ता में चतुर्थी होती है। यहाँ प्रकृति-विकृतिभाव की स्थिति में विकार-वाचक शब्द को ही चतुर्थी होती है । जैसे -- 'मूत्राय सम्पद्यते यवागूः' अर्थात् 'यवागूः मूत्रं जायते' ( यदि प्रथमा में लाकर समानाधिकरण बनाया जाय )। प्रकृति ( यवागू ) का क्रिया से साक्षात् अन्वय न होकर विकार ( मूत्र ) के द्वारा होता है। अतः विकार को कर्ता मानकर उक्त वार्तिक की संगति होती है। भेद-विवक्षा होने पर 'जनिकर्तुः प्रकृतिः' से अपादान-प्रञ्चमी ( कारकविभक्ति ) होगी-'यवाग्वाः मूत्रं सम्पद्यते' । चतुर्थी-विभक्ति का अवकाश अभेद-विवक्षा के कारण होता है । विकार के कर्तृत्व का दूसरा उदाहरण पतञ्जलि ( भाष्य १।१।१) के 'सुवर्णपिण्डः कुण्डले भवतः' इस प्रयोग में मिल सकता है । सुवर्णपिण्ड प्रकृति तथा एकवचन है; कुण्डल विकार तथा द्विवचन है। 'भवतः' क्रिया का द्विवचनत्व विकारभूत कुण्डल से अन्वित होता है। स्पष्टतः विकार को कर्ता माना गया है ।
१. 'क्लपि सम्पद्यमाने या चतुर्थी सा विकारतः ।
सुवर्णपिण्डे प्रकृतौ वचनं कुण्डलाश्रयम् ॥
-वा०प० ३१७११५