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कर्तृ - कारक
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'अङ्कुरो जायते' की उपपत्ति के उपर्युक्त दोनों प्रकारों ( उपचार- सत्ता तथा विवक्षा ) के अतिरिक्त एक तीसरा प्रकार भी भर्तृहरि सुझाते हैं, जिससे वस्तुवृत्त के आधार पर भी कर्तृत्व- सिद्धि हो सके । ऊपर हमलोग कार्य के द्वारा कर्तृत्व तथा जन्म की अनुपपत्ति देखकर विभिन्न उपायों की सहायता ले रहे थे । यदि कारण के द्वारा ( कारणमुखेन ) सिद्धि मार्ग पर चलें तो उपर्युक्त सहायता की आवश्यकता ही नहीं रहे ।
कारण-कार्य के सम्बन्ध पर मुख्यरूप से कर्म कारक के प्रकरण में विचार होगा, किन्तु दोनों के अभेद-पक्ष का आश्रय लेकर जो परिणामवाद ( सांख्य दर्शन में ) चला है उसके आधार पर यहाँ कारण में कार्य का प्रकृतिरूप देखा जा सकता है । परिणामवादी कारण तथा कार्य के बीच प्रकृति - विकृतिभाव मानते हैं, जिससे 'क्षीरं दधि सम्पद्यते ' ( दूध दही के रूप में परिणत होता है ) तथा ' बीजमंङ्कुरो जायते' ( बीज अंकुर बन जाता है ) इनमें प्रकृति तथा विकृति के बीच अभेद व्यवहार देखा जाता है। इस प्रकार एक अवस्था - विशेष में रहनेवाले पदार्थ दूसरी अवस्था को स्वीकार कर लेता है— उसका तात्त्विक परिवर्तन हो जाता है । कार्य की ओर उन्मुख कारण ही विशिष्ट विकार के निर्वर्तन की प्रक्रिया में विशिष्ट उत्तरावस्था ( अंकुरादि ) के रूप में जनि-क्रिया का कर्ता है । अतः बीजरूप कारण कर्ता होकर 'उत्तरावस्था की सिद्धि' के अर्थ में जन्म ग्रहण करता है, जिससे 'अङ्कुरो जायते' प्रयोग होता है । निष्कर्ष यह है कि परिणामवाद के आधार पर कारण कार्य की अभिन्नता दिखला कर सदवस्थापन्न बीज के विकार रूप अंकुर का जन्म वास्तविक सत्ता में भी दिखलाया जा सकता है । इसके उपपादन के लिए भर्तृहरि ने एक दूसरी कारिका में कहा है कि जैसे सर्प का कुण्डलबन्धन या पृथक्-पृथक् ( व्यग्र ) अंगुलियों का संघात - रूप मुष्टिबन्ध कोई अर्थान्तर नहीं, केवल अवस्था - विशेष का ग्रहणमात्र है; उसी प्रकार सत् - पदार्थों का जन्म भी अवस्था - विशेष का आपादन है, उसके अतिरिक्त कुछ नहीं ।
इसी प्रकार कारण तथा कार्य के अभेद पर आश्रित होकर तो वास्तविक सत्ता में जन्म - क्रिया के कर्ता की सिद्धि की ही जाती है, उन दोनों का यदि भेद भी स्वीकार करें तो भी उसके उपपादन में कठिनाई नहीं आती । वाक्यपदीय की अगली कारिका इसका निर्देश करती है
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'विभक्तयोनि यत्कार्यं कारणेभ्यः प्रवर्तते ।
स्वजातिव्यक्तिरूपेण तस्यापि व्यवतिष्ठते ॥ - वा० प० ३।७।१०८
अपने कारण से पृथक् होकर ( 'विभक्ता योनिः कारणमस्येति विभक्तयोनि' ) चलने वाला कार्य जब कारणों से उत्पन्न होता है तो उत्पत्ति से पूर्व व्यक्तिरूप में
१. 'कारणं कार्यंभावेन यथा वा व्यवतिष्ठते ।
कार्यशब्दं तदा लब्ध्वा कार्यत्वेनाथ जायते' || २. वही, ३।७।१०७ ।
- वा० १० ३।७।१०६