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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
( असद्रूप ) को कारणों की कार्योन्मुखता का द्योतन करनेवाली पूर्वावस्था पर आरोपित किया जाता है तथा अंकुर की प्रवृत्ति सत्तोन्मुख होने से उसे 'जायते' क्रिया काकर्ता बनाया जाता है। बाह्यसत्ता में जन्म आत्मलाभ को ही कहते हैं, जब कि उपचारसत्ता में या शब्दजगत् में आत्मलाभ की प्रवृत्ति भी जन्म कहलाती है ।
इसलिए मुख्य प्रश्न यह है कि 'अङ्कुरो जायते' में सत् पदार्थ जन्म लेता है या असत् ? हम देख चुके हैं कि वास्तविक रूप का आश्रय लेने पर दोनों ही पक्ष असंगत प्रतीत होंगे। इसलिए उपचार सत्ता को स्वीकार कर उपपत्ति की व्यवस्था की जाती है ' । अनुभव की दृष्टि से उत्पत्ति के पूर्व अंकुर की सत्ता मालूम नहीं होती, किन्तु वास्तविक रूप से असत् पदार्थ को कर्ता नहीं बनाया जा सकता । इस विपत्ति का निराकरण दो ही प्रकार से सम्भव है - ( १ ) उपर्युक्त प्रकार से अवास्तविक होने पर भी सत्ता का आरोप अंकुर की पूर्वावस्था पर किया जाय ( उपचार - सत्ता ) अथवा ( २ ) इस प्रकार के स्थानान्तरण को विवक्षाधीन किया जाय । कर्तृत्व यदि वैक्षिक हो जाय तो उपचार का कोई प्रयोजन नहीं रहेगा । विवक्षा-रूप बुद्धि शब्दप्रयोग का कारण है । उसमें शब्द पर निर्भर करनेवाली अवस्थाएँ रहती हैं, जिनसे अन्य क्रियाओं के कर्ता के समान स्वतन्त्रता का उपभोग करनेवाला कर्ता जनि-क्रिया को भी दिया जाता है । यह आरोप नहीं है, विवक्षा इसका नियमन करती है ।
सम्बन्ध-समुद्देश में उपचार - सत्ता की मुक्तकंठ से स्तुति करने पर भी साधनसमुद्देश में भर्तृहरि उसे विवक्षा के समक्ष महत्त्व नहीं देते । प्रत्युत हेलाराज तो यहाँ तक कह देते हैं कि 'शब्दार्थ ही अर्थ है ' - इस नियम का व्यभिचार नहीं होता, जिससे सर्वत्र मुख्य ही प्रयोग होता है, उपचार की आवश्यकता नहीं । किन्तु इससे उपचार का सर्वथा उच्छेद नहीं हो जाता, किसी स्थान में अनन्य गति होने के कारण वह अनिवार्य सत्ता है । जैसे गृहस्थाश्रम में निषिद्ध होने पर भी परान्नभोजन दूसरे आश्रमों में विहित होता है, उसी प्रकार कारक के प्रकरण में विवक्षा के द्वारा न्यग्भूत किये जाने पर भी उपचार अन्यत्र विधेय है । जो कुछ भी हो, भर्तृहरि विवक्षा का गुणगान करते हुए बुद्धि की अवस्था को बहुत महत्त्व देते हैं, जिससे जन्-धातु के कर्ता की उपपत्ति होती है । उत्पत्ति के पूर्व वस्तु का असद्भाव रहने पर भी बुद्धि की अवस्था पर आश्रित होने से, सत्तायुक्त दूसरे कर्ता की समानता से ( = जैसे दूसरी क्रियाओं के कर्ता सत् होते हैं उसी प्रकार ) जन्-धातु के भी वैवक्षिक सत् कर्ता की उपपत्ति होती है
'उत्पत्तेः प्रागसद्भावो बुद्ध्यवस्थानिबन्धनः । अविशिष्टः सतान्येन कर्ता भवति जन्मनः ॥
- वा० प० ३।७।१०५
- वा० प० ३।३।४५
मुख्यतैव सर्वत्र । नोप
-- हेलाराज, काण्ड ३, पृ० ३१५
१. ' उपचर्य तु कर्तारमभिधानप्रवृत्तये' ।
२. ‘शब्दार्थं एव चार्थः इत्यस्खलद्वृत्तित्वात् प्रयोगस्य 'चारार्थः कविचत्' ।