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___संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वामुशीलन
स्वातन्त्र्य-नियम शब्द के विषय में ही समझना चाहिए। इन धर्मों की प्रतीति शब्दमात्र में होने से भी कर्ता की सिद्धि होती है। इनकी वास्तविक सत्ता हो या न होकोई अन्तर नहीं पड़ता। इसीलिए अचेतन पदार्थ के विषय में भी कर्तृत्व की उपपत्ति हो जाती है, क्योंकि उनके शब्द-संसार में इन धर्मों की सम्यक्-प्रतीति उपपाद्य है, भले ही वस्तुतः वे पाये नहीं जायें। 'अग्निदहति' में इसी प्रकार अचेतन अग्नि को कर्ता माना जाता है। हेलाराज कहते हैं कि शब्दशास्त्र में शब्दार्थ ही अर्थ है, वस्तु को अर्थ नहीं कहा जा सकता, यदि वह शब्दगम्य नहीं हो ( व्याकरणे हि शब्दार्थोऽर्थः, न वस्त्वर्थः )। उपर्युक्त धर्म कर्ता के लक्षण की उपपत्ति अचेतन पर करने के लिए जब विवक्षित होते हैं, शब्द के द्वारा तदनुसार प्रतीत कराये जाते हैं तब शब्द से कर्ता की भी प्रतीति होती है। यह कर्तृत्व मुख्य रूप से तो नहीं होता, लाक्षणिक ( औपचारिक ) रूप ही इसे दिया जा सकता है' । करणादि कारकों का जो वैवक्षिक कर्तृत्व होता है उसमें प्रायः अचेतन ही पदार्थ होते हैं-उनकी पुष्टि भी इस नियम से हो जाती है । मुख्य रूप से कर्ता वही हो सकता है जो शब्दतः और वस्तुतः दोनों प्रकार से उन धर्मों को धारण करता है; जैसे-देवदत्तः पचति ।
शब्दजगत् की विलक्षणता स्वतन्त्रता के विवक्षाधीन होने से यह निष्कर्ष निकलता है कि एक ही पदार्थ कभी-कभी युगपत् अनेक कारकों का रूप धारण कर सकता है, यदि उसका बोध विभिन्न दृष्टिकोणों से किया जाय । एक ही आत्मा को कर्ता, कर्म और करण के रूप में समान वाक्य में देखा जाता है; जैसे-आत्मानमात्मना हन्ति । यदि वास्तविक संसार में इसका समाधान खोजें तो हमें निराशा होगी, किन्तु शब्द-जगत् का कारकव्यवहार हमें ऐसा करने की अनुमति देता है। वस्तु-जगत् में इस उदाहरण का विश्लेषण करने पर अनेक दोष मिलेंगे-एक वस्तु एक ही बार अनेक तथा परस्पर विलक्षण रूपों में नहीं रह सकती और न अमूर्त आत्मा को शस्त्रादि से मारा ही जा सकता है । किन्तु शब्द पर आश्रित विवक्षा का संसार ही दूसरा है-कवि-निमिति के समान वह भी 'नियतिकृत नियम से रहित' है। शस्त्रादि के उठाने-गिराने के व्यापार से युक्त पुरुष हनन-क्रिया का कर्ता है। विषय के रूप में विवक्षित ( हन्तव्य ) आत्मा ही कर्म है । सौकर्यातिशय की विवक्षा होने से शस्त्रादि के व्यापार की अनुपस्थिति में वही आत्मा करण भी है । इस प्रकार शाब्द कर्तृत्व की उपपत्ति होती है ।
१. 'एवं च कृत्वाचेतनेषपचरितामपि न भवति कर्तत्वम, सर्वत्रास्खलवृत्तित्वात् प्रयोगस्य मुख्यतासम्भवात्' ।
-हेलाराज, वही २. 'एकस्य बुद्धयवस्थाभिर्भेदे च परिकल्पिते ।
कर्मत्वं करणत्वं च कर्तृत्वं चोपजायते' ॥ -वा० प० ३।७।१०४ ३. ..."नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि' ।
—गीता २।२३