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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
स्वतन्त्रपरतन्त्रत्वं विप्रतिषिद्धम् १ । प्रयोजक के सन्निधान में प्रयोज्य की परतन्त्रता साधारण अनुभव का ही विषय है और उधर आप कहते हैं कि प्रयोजक स्वतन्त्र को प्रयोजित करता है । इस प्रकार प्रयोज्य एक ओर से स्वतन्त्र कहा जा रहा है, दूसरी ओर परतन्त्र हो रहा है - यह परस्पर विरोध ( विप्रतिषेध, तुल्य बलों का संघर्ष ) विचित्र स्थिति उत्पन्न करता है । किन्तु इसका उचित समाधान वार्तिककार अन्यत्र किया है |
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वार्तिककार का प्रथम समाधान हम अभी-अभी देख चुके हैं कि यदि प्रयोज्य स्वतन्त्र नहीं होता तो वह क्रियासिद्धि नहीं कर पाता तथा उसके काम न कर पाने की स्थिति में भी ( अकुर्वत्यपि ) 'कारयति' क्रिया का प्रयोग होने लगता २ । 'कारयति' क्रिया प्रयोज्य के काम करने या स्वतन्त्र होने की स्थिति में ही प्रयुक्त होती है - यह कात्यायन का मत है । भाष्यकार इस विषय में उदारतापूर्वक लौकिक अनुभव रखते हुए प्रयोज्य के काम न करने की स्थिति में भी उसकी स्वतन्त्रता की सिद्धि करते हैं । अब स्थिति यह है कि जब प्रयोज्य के काम करने और न करने — इन दोनों ही स्थितियों में 'कारयति' का प्रयोग हो सकता है तब प्रवृत्ति - निवृत्ति दोनों में स्वेच्छाधीन काम करनेवाले को स्वतन्त्र क्यों नहीं माना जा सकता ? स्वतन्त्रता का उपभोग उसके द्वारा नहीं होने की स्थिति में 'कारयति' इस णिजन्त क्रिया का प्रयोग नहीं होता स्वतन्त्र कर्ता के प्रयोजक को हेतु कहते हैं और हेतु स्थित प्रेषणादि व्यापार के द्योतित होने पर ही 'हेतुमति च' के द्वारा णिच् प्रत्यय लगता है। इससे सिद्ध है कि प्रयोज्य होने पर भी उसकी स्वतन्त्रता बनी रहती है ।
उनका दूसरा समाधान वहाँ देखा जा सकता है जहाँ 'हेतुमति च' ( पा० ३|१| २६ ) सूत्र के अन्तर्गत 'आख्यानात्कृतस्तदाचष्टे' वार्तिक का आक्षेप करने के लिए स्वयं कात्यायन कहते हैं कि उक्त वार्तिक से जो 'कंसं घातयति' इत्यादि उदाहरणों की सिद्धि होती है वह ' हेतुमति च' सूत्र से ही सम्भव है, वार्तिक की आवश्यकता नहीं है | वास्तविक कंसवध के हेतुकर्ता इन्द्रादि हैं, उनके प्रयोग में - 'इन्द्रः कृष्णेन कंसं घातयति' इस प्रकार 'हेतुमति च' से सिद्ध होता है । किन्तु उसी तथ्य को नट अभिनय के द्वारा जब रंगमंच पर प्रस्तुत करता है तब इस वार्तिक की आवश्यकता पड़ती है और 'कंसं घातयति' का प्रयोग होता है । इस पर कत्यायन का कथन है कि इस अभिनयात्मक कंसवध पर वास्तविक कंसवध का आरोप कर दें तो दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता तथा 'हेतुमति च' से ही दोनों प्रकार के कंसवधों ( वास्तविक
१. भाष्य २, पृ० २८० ।
२. 'न वा स्वातन्त्र्याद्, इतस्था ह्यकुर्वत्यपि कारयतीतिः स्यात्' ( वा० ) । तथा - 'यो हि मन्यते, नासौ स्वतन्त्रः, अकुर्वत्यपि तस्य
कारयतीत्येतत्स्यात् ' ( भाष्य ) ।
- भाष्य २, पृ० २७८