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कारक तथा विभक्ति
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पाँच यथायोग्य विभक्तियों के अर्थ हैं' । कौण्डभट्ट के अनुसार सामान्यरूप से आश्रय द्वितीया, तृतीया तथा सप्तमी विभक्तियों का अर्थ है, अवधि पंचमी का उद्देश्य चतुर्थी का, सम्बन्ध षष्ठी का तथा शक्ति प्रथमादि सभी का अर्थ है । इसमें से कुछ अर्थों का विवेचन हम विभिन्न कारकों के निरूपण के अवसर पर करेंगे । इतना विशेष रूप से ज्ञातव्य है कि करण तृतीया में आश्रय के साथ व्यापार का भी बोध होता है । ' षष्ठी शेषे' के आधार पर षष्ठी का सम्बन्ध मात्र अर्थ तो है, किन्तु कारक - षष्ठी का अर्थ केवल शक्ति है । शक्ति को कौण्डभट्ट भर्तृहरि के अनुसार सभी कारक विभक्तियों का अर्थं मानते हैं ( शक्तिरेव वा - षण्णामपीति शेषः ) ।
अब हम विभक्ति के व्यंजक नियम ( विभक्तिरेव कारकं व्यनक्ति ) पर दृष्टिपात करें । इसका भी व्यभिचार प्राप्त होता है, क्योंकि विभक्ति प्रधानतया कारक को भले ही अभिव्यक्त करती है किन्तु उसके अतिरिक्त अन्य कई शब्दशास्त्रीय तत्त्व भी कारक को प्रकट करते हैं, जिनका निर्देश हेलाराज ने किया है २ । 'ग्रामं गच्छति' में अम्-विभक्ति ही कर्म को व्यक्त करती है तो 'शत्यः' या 'शतिकः' ( शतेन क्रीतः ) में तद्धित प्रत्यय यत् या ठन् ( शताच्च ठन्यतावशते ५।१।२१ ) क्रय - क्रिया के प्रति साधकतमत्व ( करणत्व ) का बोध कराता है । यत्र तत्र आदि में भी त्रल् प्रत्यय
अधिकरण का बोधक है । 'मधु निरीक्षते, दधि समश्नाति' में प्रातिपदिक से ही कर्मत्व-शक्ति की प्रतीति हो रही है । 'अन्तरा त्वां च मां च कमण्डलु : ' में अन्तराशब्द अव्यय है, जो अधिकरण का बोध करा रहा है । 'भीमो राक्षसः' में कृत्-प्रत्यय ( उणादि का ) मक् अपादान का तथा 'दानीयो विप्रः' में अनीयर् सम्प्रदान का Matar है । अतएव विभक्ति के अतिरिक्त भी कई तत्त्व कारक के व्यंजक हैं । तथापि इस विषय में विभक्ति की मुख्य व्यंजकता अक्षुण्ण है ।
सम्बोधन का अर्थ
सम्बोधन में पाणिनि ने प्रथमा विभक्ति का विधान किया है । सामान्यरूप से संस्कृत वैयाकरण इसका कारकत्व स्वीकार नहीं करते, क्योंकि इसमें साक्षात् क्रियान्वय नहीं होता । कुछ लोग तो इसे वाक्य परिशिष्ट अर्थात् बाहर से लाकर वाक्य में जड़े गये शब्द के रूप में देखते हैं, मानो यह विस्मयादिबोधक पद ( इण्टरजेक्शन ) हो । तथापि व्याकरण-दर्शन में इसके वाक्यगत सम्बन्ध का सम्यक् विश्लेषण हुआ है । भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के साधनसमुद्देश में प्रथमा विभक्ति का अर्थ निरूपण करते हुए सम्बोधन का स्वरूप इस प्रकार स्पष्ट किया है -
१. भूषणकारिका २४ ॥
२. द्रष्टव्य – वा० प० ३।७।१३ - 'विभक्त्यादिभिरेवासावुपकारः प्रतीयते' । तथा इसकी व्याख्या |
३. द्रष्टव्य – ह्विटने का 'संस्कृत ग्रामर' पैरा० ५९४ ( ए ) ।
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