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कारक तथा विभक्ति
नहीं है, क्योंकि तव 'सम्बोधने च' सूत्र की व्यर्थतापत्ति हो जायगी। दूसरी बात यह है कि 'वजानि देवदत्त' में समानाधिकरणता है ही नहीं। 'जानीहि' का अध्याहार कर लेने से कोई असंगति नहीं रहती। नागेश ने सिद्ध किया है कि सम्बोधन की कतकारकता में आपाततः कोई दोष नहीं है । यह तो गतानुगत परम्परा है जो इसे कर्ता नहीं मानती। 'हे राम ! त्वं पच' में स्पष्टत: पाकक्रिया का कर्तृत्व 'त्वम्' के माध्यम से राम में है । किन्तु 'हे राम ! अयं पचति' इस वाक्य में राम पाककर्ता नहीं है, क्योंकि शब्द-शक्ति का यह स्वभाव है कि सम्बोध्यमान पदार्थ 'इदम्' ( अयम् ) शब्द का अर्थ नहीं होता । सम्बोध्य का बोध युष्मद् या भवत् से होता है । 'हे राम ! मामुद्धर' में निश्चय ही राम उद्धरण क्रिया का कर्ता है ।
विवक्षातः कारकाणि इस अध्याय की समाप्ति करने के पूर्व हम कारक-सम्बन्धी एक ऐसे विषय का विवेचन करना अपेक्षित समझते हैं जिसमें भापा-प्रयोग को लोक के अधीन स्वीकार किया गया है । व्याकरण के सभी नियम उसके समक्ष विनत हैं । कारकों का व्यवहार प्रायशः वक्ता की इच्छा पर निर्भर करता है, द्रव्य की वस्तुनिष्ठ स्थिति पर नहीं। हम ऊपर कह चुके हैं कि द्रव्यों की विविध शक्तियाँ हैं; यह सारा संसार ही शक्तियों का समूह है, किन्तु एक बार में कोई-कोई शक्ति ही वक्ता की बुद्धि का विषय बनती है, सभी शक्तियाँ नहीं । यदि द्रव्यों की सभी शक्तियाँ बुद्धि के द्वारा निरूपित होने लगें तो सभी कारकों की युगपत् प्राप्ति तथा सांकर्य का प्रसंग आ जायगा। यही कारण है कि 'घटं पश्य, घटेन जलमानय, घटे जलं निधेहि'—इत्यादि में कर्म-करणअधिकरण की नियमपूर्वक व्यवस्था होती हैं, क्योंकि किसी समय कर्मत्व-शक्ति विवक्षित होती है तो कभी करणत्व-शक्ति । इसी प्रकार सभी कारकों की कर्तृत्वविवक्षा भी उनकी कारकत्वशक्ति की उपपत्ति के लिए होती है ।
विवक्षा एक लौकिक तथ्य है। दृष्टार्थ या लोकतः प्राप्त होने के कारण इसका विधान शास्त्र में नहीं किया गया है। विधान अदृष्टार्थ अथवा अत्यन्त अप्राप्त विषय का ही होता है । इसीलिए शास्त्रों में 'विवक्षा भवति' 'विवक्षा दृश्यते' इत्यादि वाक्य मिलते हैं; 'विवक्षां कुर्यात्' जैसे नहीं। आचार्यों ने इस लोक-विवक्षा को बहुत महत्त्व दिया है तथा इसी के आधार पर भाषा-प्रयोगों का विवेचन भी किया है।
पतञ्जलि ने विवक्षा का उल्लेख करते हुए कहा है कि कभी-कभी सत्-पदार्थ की १. 'तस्मात्कर्तृकारकत्वं सम्बोधनस्येति वृद्धोक्तं साध्वेव' ।
-ल० म०, पृ० ११९१ २. ल० म० कलाटीका, पृ० ११९२ ।
३. (क) सायण की ऋग्भाष्य-भूमिका में स्वाध्याय-प्रकरण-'अदृष्टार्था त्वधीतिविहितत्वात्' । (ख) 'विधिरत्यन्तमप्राप्ते'।
-अर्थसंग्रह, पृ० ५४