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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
से होती है, किन्तु उनमें भी किसी कारक की प्रधानता या स्वतन्त्रता रहती ही है । जब धातु के द्वारा किसी साधन के व्यापार को प्रधानरूप से प्रकट किया जाता है। तब उसी को स्वतन्त्र कहते हैं तथा वह कर्ता होता है ।
किसी के व्यापार की स्वतन्त्रता मुख्यतः विवक्षा पर निर्भर करती है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक कारक की स्वतन्त्रता विवक्षित होने पर उसके कर्तृत्व की उपपत्ति होती है । पतञ्जलि ने 'कारके' सूत्र ( १।४।२३ ) का व्याख्यान करते हुए स्थालीपुलाक- न्याय से करण तथा अधिकरण कारकों के कर्तृभाव का प्रदर्शन किया है । यह सही है कि प्रत्येक कारक में क्रियाभेद से एक ओर जहाँ उन विशिष्ट कारकों की व्यवस्था होती है दूसरी ओर वहीं कर्तृत्व भी उपपन्न होता है । कात्यायन
प्रामाण्य पर पतंजलि कहते हैं कि जब पाक-क्रिया का अर्थ अधिश्रयण ( पात्र को चूल्हे पर रखना ), उदकासेचन ( उसमें जल छोड़ना ), तण्डुलावपन ( चावल डालना) तथा एधोऽपकर्षण ( इन्धन हटाकर आग बुझाना ) होता है तब यह प्रधान कर्ता ( देवदत्तादि ) की पाक क्रिया समझी जाती है । अतः प्रयोग होता है - 'देवदत्तः पचति' अर्थात् देवदत्त पात्र को चूल्हे पर रखता है, उसमें जल छोड़ता है इत्यादि । प्रधान कर्ता का कर्तृत्व यहाँ इसलिए उपपन्न है कि वह उक्त व्यापारों के सम्पादन में स्वतन्त्र है
पुनः जब कहते हैं कि 'पाँच सेर पकाता है, ढाई सेर पकाता है ( द्रोणं पचति, आढकं पचति ) तब यहाँ पाँच सेर आदि परिमाण से युक्त अन्न को ग्रहण करने ( सम्भवन ) तथा धारण करने का बोध होता है - रन्धन - पात्र ( स्थाली ) उस परिमाण को ग्रहण - धारण करके पाक क्रिया का सम्पादन कर रहा है । इस स्थिति में सामान्यतया अधिकरण-कारक के रूप में उद्दिष्ट रन्धन- पात्र कर्ता बन जाता है । यही अधिकरण की पाकक्रिया है जिससे 'स्थाली पचति' जैसे वाक्य सिद्ध होते हैं ।
अन्त में करण की पाक - क्रिया भी देखें। जब हम कहते हैं-- एधाः पचन्ति ( लकड़ियाँ पका रही हैं ), तब यहाँ पाक-क्रिया का अर्थ है - 'अन्न के कोमल हो जाने तक ( आ विक्लित्तेः ) जलते रहना' । इस क्रिया का सम्पादन करनेवाली लकड़ियाँ कर्ता के रूप में दिखलायी गयी हैं, यद्यपि साधारणत: वे मुख्य पाकक्रिया की सिद्धि के लिए करण या साधकतम के रूप में निर्दिष्ट होती हैं ( एधेः पचति ) । इस प्रकार जब जहाँ जैसी विवक्षा हो धातुओं की वैसी संगत वृत्ति दिखलायी जा सकती है ।
कर्म-कारक के कर्तृत्व का निरूपण तो पाणिनि ने ही 'कर्मवत् कर्मणा तुल्यक्रिय: ' ( ३।१।८७ ) सूत्र में किया है, जिसके अनुसार पाकक्रिया की सुसाध्यता तथा प्रधान कर्ता के व्यापार की अनुपस्थिति में 'पच्यते ओदनः स्वयमेव ' ( ओदन अपने आप पक रहा है ) ऐसा प्रयोग होता है । इसी प्रकार काटने ( छिदि क्रिया ) के क्रम में उद्यमन ( कुठार ऊपर उठाना ) तथा निपातन ( उसे गिराना ) करने वाला व्यक्ति प्रधान कर्ता है; जैसे – देवदत्तरिछनत्ति । पुनः 'परशुश्छिनत्ति' तथा 'छिद्यते काष्ठं स्वयमेव'इन उदाहरणों में क्रमश: करण और कर्म की कर्तृत्वविवक्षा हुई ।