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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कर पात्र लाते हैं कि वह ( पात्र ) इतना अन्न ग्रहण और धारण कर सकेगा-इन क्रियाओं में वह स्वतन्त्र है। ___ तब यह कहा जा सकता है कि पात्र में स्थित व्यापार का कथन होने पर पात्र स्वतन्त्र होता है और जब प्रधान कर्ता में स्थित व्यापार प्रकट किया जाय तब वह परतन्त्र भी होता है। किन्तु इस समाधान में भी आशंका का अवकाश है कि कर्तृस्थ व्यापार के प्रकट होने पर भी उपर्युक्त ग्रहण तथा धारण-क्रियाओं का सम्पादन करनेवाला रन्धन-पात्र स्वतन्त्र ही तो रहता है । तब अन्त में यह समाधान दिया जा सकता है कि प्रधान ( कर्ता ) के साथ समवाय ( सान्निध्य ) होने पर रन्धन-पात्र परतन्त्र रहता है और जब उससे दूरी रहे ( किसी वाक्य में प्रधान कर्ता अनुपस्थित हो ) तो स्वतन्त्र हो जाता है । इसे पतञ्जलि एक लौकिक उदाहरण से स्पष्ट करते हैं । राजा के सामने रहने पर अमात्य अपने काम में परतन्त्र रहते हैं और जब उससे दूर हटकर अपने सम्बद्ध विभाग में जाते हैं तो स्वतन्त्र हैं। यही स्थिति प्रधान कर्ता के सान्निध्य में करणादि कारकों की है। ऐसा कभी नहीं होता कि प्रधान कर्ता की उपस्थिति में कोई दूसरा कारक कर्ता के रूप में विवक्षित हो; जैसे-रामः स्थाली पचति' । यह प्रयोग असंगत है ।
चूंकि सभी कारक सामूहिक रूप से क्रिया के उत्पादक हैं अत: यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि किसे प्रधान माना जायः ? केवल कर्ता को प्रधान कह देने से तो काम नहीं चल सकता, कुछ युक्ति देनी होगी। पतञ्जलि इसके उत्तर में कहते हैं कि कर्ता चूंकि अन्य सभी साधनों ( कारकों ) के वर्तमान होने पर उन्हें कार्य में प्रवृत्त कराकर क्रिया का उत्पादन करता है इसलिए वह प्रधान है। इसका स्पष्टीकरण यह है कि पाकक्रिया के सम्पादन के लिए सामान्य रूप से उपकार करनेवाले पदार्थ इन्धन, अग्नि, जल, पात्र इत्यादि सभी साधनों के रहने पर भी हम तब तक 'पचति' का प्रयोग नहीं कर सकते जब तक पाककर्ता अपने कार्य में सन्नद्ध नहीं हो जाता। कर्ता इसीलिए स्वतन्त्र कहलाता है कि उसका अपना रूप ही तन्त्र अर्थात् प्रधान होता है । करणादि में पर ( अर्थात् कर्ता ) की प्रधानता होती है । कर्ता ही उन्हें कार्य में प्रयोजित करता है और तब वे क्रियासिद्धि करने में समर्थ होते हैं। कर्ता किसी के द्वारा प्रयोज्य नहीं होता, अतः वह स्वतन्त्र या प्रधान है।
कर्ता की स्वतन्त्रता : भर्तृहरि के विचार कर्ता की उक्त प्रधानता की उपपत्ति भर्तृहरि ने वाक्यपदीय की दो कारिकाओं ( ३७१०१-२ ) में की है, जिनका भावार्थ कैयट ने भाष्य की उक्ति के व्याख्यान में प्रायः अन्वय करके ही दिया है। ये कारिकाएँ इस प्रकार हैं
१. भाष्य २, पृ० २४५ । २. 'यत्सर्वेषु साधनेषु सन्निहितेषु कर्ता प्रवर्तयिता भवति' ।
-भाष्य २, पृ० २४५