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चतुर्थ अध्याय कर्त-कारक
व्युत्पत्ति
कृ-धातु ( डुकृञ् करणे, तनादि, उभयपदी ) से कर्तृवाचक तृच् प्रत्यय लगाकर निष्पन्न 'कर्ता' ( प्राति० - कर्तृ ) शब्द इस दृष्टि से कारक शब्द का पर्याय है कि दोनों में समान सूत्र ( ' ण्वुल्तृचौ ' पा० ३।१।१३७ ) से ही कर्तृवाचक प्रत्यय विहित होते हैं। तथा दोनों का अर्थ हैं --- करनेवाला । कारकों के प्रकरण में कर्ता का स्थान इस अर्थ - साम्य से सम्यक् प्रकट होता है । व्याकरणशास्त्र में, विशेषतः पाणिनि-तन्त्र में यह नियम-सा है कि किसी प्रकरण का नाम ( संज्ञाकरण ) उस प्रकरण में स्थित किसी प्रधान या अतिप्रसिद्ध विषय के आधार पर रखा जाता है ( प्रधानेन व्यपदेशा भवन्ति ) । उदाहरण के लिए कृत् - प्रकरण का नाम उस प्रकरण में निष्पन्न होनेवाले सुप्रसिद्ध शब्द कृत् ( कृ + क्विप् ) पर आश्रित है । घि, नदी, तद्धित इत्यादि संज्ञाओं में भी यह नियम मिलता है | अतः कर्ता के समानार्थक 'कारक' संज्ञाकरण में कोई आश्चर्य की बात नहीं है । इसी से कारकों में कर्ता का प्रधान-भाव ज्ञात होता है ।
पाणिनि-कृत लक्षण
पाणिनीय अष्टाध्यायी में कर्ता का सुप्रसिद्ध लक्षण है - 'स्वतन्त्रः कर्ता' (१|४|५४) अर्थात् क्रिया की सिद्धि में जो स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्त हो उसे कर्ता कहते हैं । जैसे - रामो गच्छति । रामेण गम्यते । इन दोनों उदाहरणों में गमन क्रिया की सिद्धि के लिए राम की स्वतन्त्र रूप से प्रवृत्ति प्रदर्शित है । प्रथम में कर्ता ( राम ) अभिहित है, दूसरे में भति ।
'स्वतन्त्र' का पतञ्जलि द्वारा विवेचन
पतञ्जलि ने इस सूत्र की व्याख्या के अवसर पर 'स्वतन्त्र' शब्द के अर्थ का बड़ा मनोरंजक वर्णन किया है । 'तन्त्र' शब्द को साधारण अर्थ ( तन्तु, सूत्र ) में लेने से 'स्वं तन्त्रं यस्य सः स्वतन्त्रः ' ऐसा समास करने पर केवल तन्तुवाय ( जुलाहे ) को ही कर्ता कह सकेंगे, दूसरे किसी को नहीं । किन्तु 'तन्त्र' शब्द दूसरे अर्थों में भी प्रयुक्त होता है; जैसे - विस्तार, प्रधानता इत्यादि । पतंजलि के अनुसार यहाँ यह प्रधानता वाले अर्थ में है ' । तदनुसार 'स्वतन्त्र' का अर्थ है -- 'स्व आत्मा तन्त्रं प्रधानं यस्य सः ' ( कैयट ) । कारक का अधिकार क्षेत्र होने से यहाँ 'प्रधान' अर्थ का ही उपयोग हो सकता है, अन्य अर्थों का नहीं। वैसे क्रिया की सिद्धि अनेक कारकों के संयुक्त प्रयास
१. 'तद्यः प्राधान्ये वर्तते तन्त्रशब्दः तस्येदं ग्रहणम्' ।
- भाष्य २, पृ० २७७