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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
(१) शास्त्र द्वारा स्वीकार्य कारक-विभक्ति के बदले जाने पर भी अर्थ में मौलिक परिवर्तन नहीं होना चाहिए । 'ग्रामादागच्छति' की विवक्षा 'ग्राममागच्छति' नहीं हो सकती।
(२ सुबन्त तथा तिङन्त शब्दों की प्रकृति ( प्रातिपदिक तथा धातु ) में परिवर्तन नहीं होना चाहिए । हाँ, समानार्थक प्रकृतियों के प्रयोग में कोई-कोई आपत्ति नहीं है । 'ग्रामादागच्छति' की विवक्षा 'ग्रामं त्यजति' के रूप में नहीं दिखलायी जा सकती, क्योंकि दोनों की प्रकृतियाँ भिन्न हैं ।
( ३ ) विवक्षा शिष्ट प्रयोगों पर आश्रित होती है । प्रमत्तों तथा अवैयाकरणों के असाधु प्रयोगों को विवक्षित रूप कहकर शास्त्र में ग्रहण नहीं किया जा सकता। इससे सिद्ध है कि विवक्षा का क्षेत्र भी नियत है।
विवक्षा का शास्त्रत्व तथा उसके प्रकार अपने समय तक होनेवाली विवक्षाओं को तो पाणिनि तथा कात्यायन ने अपने सूत्रों-वार्तिकों में ही अन्तर्भूत कर लिया था, किन्तु उनके बाद के शिष्ट प्रयोग पाणिनिव्याकरण में अन्तर्भूत नहीं किये जा सके । भट्टोजिदीक्षित को इतनी बड़ी संख्या में ऐसे 'अशास्त्रीय' प्रयोग मिले कि प्रौढमनोरमा तथा शब्द-कौस्तभ में उन्हें सिद्ध करने या 'चिन्त्य' बतलाने में दीक्षित को महान् श्रम करना पड़ा। उनके पूर्व भी शरणदेव अपनी दुर्घटवृत्ति में तथा वामनादि आचार्य अपने काव्यशास्त्रीय ग्रन्थों में ऐसे प्रयोगों का विचार कर चुके थे। पाणिनि-व्याकरण में निर्दिष्ट एक विवक्षा का उदाहरण लें'ग्रामे वसति' में ग्राम अधिकरण है, किन्तु 'ग्राममुपवसति, अनुवसति' इत्यादि में वही अधिकरण कर्म के रूप में विवक्षित बनकर शास्त्र का रूप ले लेता है। पाणिनि ने इसे 'उपान्वध्यावसः' सूत्र देकर समाहित किया। इसी प्रकार 'गो: ( अपादान ) पयो दोग्धि' की विवक्षा 'गां पयो दोग्धि' के रूप में होती थी। इसे तथा ऐसे ही कई अन्य प्रयोगों के समाधान के लिए 'अकथितं च' सूत्र दिया कि अपादानादि से अविवक्षित कारक को कर्मसंज्ञा होती है। एक स्थान में अविवक्षित होने पर दूसरे स्थान में विवक्षा होगी ही। इसी प्रकार सम्बन्ध की विवक्षा का भी पाणिनि ने निरीक्षण किया है। 'मातरं स्मरति' के स्थान पर 'मातुः स्मरति' तथा 'छात्रेण हसितम्' के स्थान पर शेष-विवक्षा में 'छात्रस्य हसितम्' होता है। ये विवक्षाएँ वैकल्पिक हैं।
यह आवश्यक नहीं कि विवक्षा होने पर उसके मूल तथा विवक्षित दोनों रूप साधु ही माने जायँ, क्योंकि अधिकांश विवक्षास्थलों में मूल रूप 'असाधुत्व' की स्थिति में पहुँच गये रहते हैं। 'ग्रामे आवसति' का प्रयोग असाधु है । 'धनुषा विध्यति' (धनुष से निकले हुए बाणों से विद्ध करता है )-इसमें धनुष का मूल रूप अपादान प्रयोग करना असाधु है, करण की विवक्षा हुई तथा वही एकमात्र शुद्ध रूप रह गया। भाषा के प्रयोगों का इसी प्रकार संक्रमण होता है। कुछ मूल रूप अशुद्ध तो नहीं है