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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन । सम्बोधन का फल प्रवृत्ति या निवृत्ति-रूप माना है, क्योंकि विधिवाक्यों में प्रवृत्ति तथा निषेधवाक्यों में निवृत्ति उसका प्रयोजन रहता है। अभिमुखीकरणार्थक होने से सम्बो. धन की विभक्ति अनुवाद्य ( पूर्व से ज्ञात, उद्देश्य ) के विषय में ही चरितार्थ होती है। जब तक सम्बोध्य पदार्थ की पूर्वसिद्धि नहीं हो जाती, जिससे कि वह वाक्य में उद्देश्य का रूप धारण कर सके, तब तक सम्बोधन विभक्ति भी उपपन्न नहीं होगी। यही कारण है कि 'राजा भव, युध्यस्व' ( राजा हो जाओ, युद्ध करो ), 'इन्द्रशत्रुर्वर्धस्व' ( इन्द्र का नाशक बनकर बढ़ो ) --इत्यादि वाक्यों में सम्बोधन विभक्ति नहीं है । स्पष्टीकरण यह है कि उस दशा में राजत्व या इन्द्रनाशकत्व सिद्ध नहीं है । अतः वह उद्देश्य नहीं हो सकता कि 'हे राजन्' या 'हे इन्द्रनाशक' कह सकें । इसीलिए कुमारावस्था में 'राजन्, युध्यस्व' तथा राजावस्था में 'राजा भव, युध्यस्व' प्रयोग असंगत हैं । इनके विपरीतात्मक प्रयोग साधु होंगे।
कुछ लोग सम्बोधन का व्युत्पत्तिजन्य अर्थ स्वीकार करते हैं—'सम्यक बोधनं ज्ञापनम्' । सम्बोध्य पदार्थ को ज्ञापित करने के लिए यह अर्थ होता है । यहाँ 'सम्यक' विशेषण से यही प्रतीत होता है कि सम्बोध्य पदार्थ में अवश्यकर्तव्यता आदि के विषय में ज्ञान उत्पन्न किया जाता है। सम्बोध्य पदार्थ को यह ज्ञान हो जाता है कि वक्ता हमें जो प्रवृत्त या निवृत्त कर रहा है, हमें उसे अवश्य मानना है । कभी-कभी आग्रहादि अर्थ होने पर उसे अपनी इच्छा के अनुकूल काम करने का अवकाश भी दिया जाता है।
__ 'हे' आदि शब्द सम्बोधन के तात्पर्य-ग्राहक होते हैं, व्यर्थ नहीं हैं । 'शृणोतु ग्रावाण:' ( पत्थरो, सुनो ), 'स्वधिते मैनं हिंसीः' ( छुरी, इससे कष्ट मत पहुँचाओ ) इत्यादि में अ तन पर चेतनता का आरोप करके गौण प्रयोग हुआ है। अन्यथा सम्बोध्य की चेतनत अनिवार्य है। 'हे राम ! त्वं सुन्दरः' में 'असि' का अध्याहार करके वाक्य की उपपत्ति की जाती है। इसी प्रकार 'धिङ् मूर्ख' में क्रिया का अध्याहार करने से ही प्रथमा विभक्ति सिद्ध होती है, अन्यथा ‘धिक' के योग में द्वितीया ही होगी। दोनों ही उपपद विभक्तियाँ हैं, इसलिए वैकल्पिक हैं।
सम्बोधन के वाक्यगत सम्बन्ध को ( जैसे-'वजानि देवदत्त' में ) आधार मान कर ही प्राचीन आचार्यों ने इसे कर्ता-कारक के रूप में भी व्यवहृत किया है, क्योंकि सम्बोधन ही 'त्वम्' शब्द के रूप में प्रतिनिधित्व प्राप्त करता है-राम ! त्वं गच्छ । देवदत्त ! त्वं जानीहि । यह वार्तिककार का मत है कि जिन्होंने 'तिङसमानाधिकरणे प्रथमा' कह कर प्रथमा की सिद्धि की है । पतंजलि-प्रभृति वैयाकरणों को यह मान्य
१. ल० म०, पृ० ११८६ ।
२. 'एतन्मूलकमेव सम्बोधनस्य कर्तृकारकत्वव्यवहारो वृद्धानाम् । तस्यैव त्वंपदार्थत्वेन विनियोज्य क्रियाकर्तृत्वात्' ।
-ल० म०, पृ० ११९० ३. द्रष्टव्य-भाष्य २, पृ० ५१६ ।