________________
७८
संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
( च ) नमः, स्वस्ति, स्वाहा, स्वधा, अलम्, वषट् आदि के योग में चतुर्थी होती है । यथा-गुरुवे नमः । राज्ञे स्वस्ति । अग्नये स्वाहा । अलं मल्लो मल्लाय । 'अलम्' यहाँ पर पर्याप्त के अर्थ में लिया गया है, अतएव तदर्थक अन्य शब्दों के योग में भी चतुर्थी होती है । यथा-दैत्येभ्यो हरिरलम्, प्रभुः, समर्थः, शक्तः । प्रभु आदि शब्दों के योग में षष्ठी भी होती है; जैसे--'प्रभुर्बुभूषुर्भुवनत्रयस्य यः' ( शिशु० )।
( छ ) आशीर्वाद का अर्थ ज्ञात होने पर आयुष्य, मद्र, भद्र, कुशल, सुख , अर्थ तथा हित- इन शब्दों के योग में चतुर्थी तथा षष्ठी-ये दोनों विभक्तियाँ होती हैं । यथा-आयुष्यं देवदत्ताय ( देवदत्तस्य वा ) भूयात् । इन्हीं अर्थों में निरामय, शम्, प्रयोजन आदि शब्दों के योग में भी ये विभक्तियाँ होती हैं—'शं नो देवीरभिष्टय आपो भवन्तु पीतये' ( अथर्व० )।
(५) पञ्चमी कारकविभक्ति-( क ) सभी प्रकार के अनभिहित अपादानों में पंचमी विभक्ति होती है; यथा-वक्षात्पतति । चौराद् बिभेति । उपाध्यायादधीते ।।
( ख ) कात्यायन के अनुसार ल्यप्-प्रत्ययान्त क्रिया का लोप होने पर उसके कर्म तथा अधिकरण कारकों में पंचमी होती है। यथा-प्रासादात् (प्रासादमारुह्य ) प्रेक्षते । आसनात् ( आसने उपविश्य ) प्रेक्षते । पतंजलि ने इस वार्तिक का खण्डन करते हुए कहा है कि अपादान से ही इसकी सिद्धि हो जायगी, क्योंकि दर्शन का प्रासाद से अपक्रमण होता है। विषय का ग्रहण करनेवाली नयन-रश्मियाँ सूर्य-रश्मि के समान प्रासाद पर स्थित पुरुष के नयन से निकल कर विषय-देश में पहुंचती हैं, जिससे कहा जाता है कि नयन प्रासाद से देख रहा है। वास्तव में प्रासाद से अपक्रान्त होकर वह विषय को जान लेता है। मुख्यतः प्रासादस्थ पुरुष से निर्गमन होने पर भी लक्षण के द्वारा प्रासाद से निर्गमन होने का व्यवहार होता है ।
(ग ) जब स्तोक, अल्प, कच्छ तथा कतिपय-ये शब्द धर्ममात्र के वाचक हों, द्रव्य के बोधक न हों तथा करण-कारक में आ रहे हों तो इनसे पञ्चमी तथा तृतीयाये दोनों विभक्तियाँ होती हैं । यथा-स्तोकान्मुक्तः ( स्तोकेन वा-थोड़ा-सा से बच गया )। द्रव्यवाचक होने पर करण में तृतीया ही होगी-स्तोकेन विषेण मृतः ( थोड़े विष से मर गया )।
उपपदविभक्ति-( क ) जिस ( अवधि ) से मार्ग और समय की नाप की जाय उसमें पंचमी होती है। मार्ग-पाटलिपुत्राद् राजगृहं सप्त योजनानि ( सप्तसु योजनेषु वा ) । मार्गवाचक शब्द में कात्यायन प्रथमा या सप्तमी ही का प्रयोग साधु ( शुद्ध ) बतलाते हैं । उसी प्रकार कालवाचक में सप्तमी होती है। काल-कार्तिक्या आग्रहायणी मासे ( कार्तिक पूर्णिमा से आग्रहायण की पूर्णिमा एक मास है )२।
१. उद्योत खण्ड २, पृ० ५०६ । २. 'यतश्चाध्वकालनिर्माणम्; तद्युक्तात्काले सप्तमी; अध्वनः प्रथमा च' ।
-भाष्य ( २।३।२८ ) में उद्धृत वार्तिक ।