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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
( ग ) प्रतियत्न ( सत्तावान् पदार्थ में गुणान्तर का आधान ) के अर्थ में कृ-धातु हो तो उसके कर्म में शेषविवक्षा होने पर पष्ठी होती है; यथा - अग्निः स्वर्णस्य उपस्कुरुते । कर्मत्व-विवक्षा में द्वितीया होती है । ( 'कृञः प्रतियत्ने' - पा० सू० २।३।५३) ।
(घ) रोग के अर्थवाले धातुओं के ( ज्वर्-धातु को छोड़कर ) प्रयोग में यदि भाववाचक शब्द कर्ता हो तो उनके कर्म में पष्ठी होती है -- 'चौरस्य रुजति रोग : ' । यहाँ कर्ता भाववाचक रोग-शब्द है, अतः रुज्-धातु के कर्म में षष्ठी हुई है । यदि कर्ता के रूप में भाववाचक शब्द न हो तो कर्म में द्वितीया ही होती है- 'नदी कूलानि रुजति' । इसी प्रकार शेष विवक्षा नहीं होने पर भी - 'चौरं रुजति रोग :'; यहाँ द्वितीया हुई है। ज्वर तथा सन्तापन - क्रियाओं के प्रयोग में भी द्वितीया होती है - 'चोरं सन्तापयति तापः, ज्वरयति ज्वरः' ('राजार्थानां भाववचनानामज्वरे : ' - पा० सू० २।३।५४) ।
(ङ) आशीर्वाद याचना ( आशा करना ) के अर्थ में नाथ धातु का प्रयोग हो तो उसके कर्म में शेष - विवक्षा होने पर षष्ठी विभक्ति होती है; यथा - सर्पिषो नाथते ( मुझे घी मिले, ऐसी आशा करता है ) ।
(च) हिंसा के अर्थ में जासि जातु ( जस + णिच् ), नि तथा प्र ( संयुक्त या व्यस्त ) के बाद हन्- धातु नाटि, क्राथि ( दोनों णिजन्त ) तथा पिष्— इन सभी धातुओं का प्रयोग हो तो उनके कर्म कारक में शेष - विवक्षा होने पर षष्ठी होती है; जैसे - 'चौरस्योज्जासयति, निहन्ति, प्रहन्ति, प्रणिहन्ति, उन्नाटयति, क्राथयति, पिनष्टि' । कर्मत्व- विवक्षा में यथापूर्व द्वितीया होगी ( पा० २।३।५६ ) ।
(छ) वि तथा अव ( संयुक्त ) पूर्वक हृ-धातु तथा पण धातु समानार्थक हों तो इनके कर्म में शेष - विवक्षा होने पर षष्ठी होती है । द्यूत तथा क्रय-विक्रय के व्यवहार में ये दोनों समानार्थक होते हैं; यथा - शतस्य व्यवहरति, शतस्य पणते ( सौ रुपयों का क्रय-विक्रय करता है, या जुए में बाजी रखता है ) । यदि दोनों भिन्नार्थक हों तो षष्ठी नहीं होती - ' शलाकां व्यवहरति ' ( गिनता है ) । ' ब्राह्मणान् पणायते' ( स्तुति करता है ) ( पा० सू० २।३।५७ ) ।
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( ज ) क्रय-विक्रय व्यवहार तथा द्यूत के अर्थ में दिव् धातु का प्रयोग हो तो उसके कर्म में षष्ठी होती है - शतस्य दीव्यति । अर्थ उपर्युक्त धातुओं के समान है । यदि दिव-धातु उपसर्गयुक्त हो तो कर्म में षष्ठी विकल्प से होती है - ' शतस्य ( शतं वा ) प्रतिदीव्यति' । इससे सिद्ध होता है कि उपसर्गरहित दिव-धातु के कर्म में नित्य रूप से षष्ठी होती है ( पा० २।३।५८ - ९ ) यदि उपर्युक्त अर्थ हों । हाँ, दूसरे अर्थों में द्वितीया हो सकती है - 'ब्राह्मणं दीव्यति' ( - स्तौति ) ।
( झ ) यज्-धातु के करण में वेदों में बहुधा षष्ठी ( तथा तृतीया ) का प्रयोग देखा जाता है - 'सोमस्य ( सोमेन वा ) यजते' ।
(ञ) कृत्वसुच्-प्रत्यय या उसके अर्थ का प्रयोग हो तो कालवाचक अधिकरण में षष्ठी होती है ( कृत्वोऽथंप्रयोगे कालेऽधिकरणे - २ |३|६४ ) | यथा - - पञ्चकृत्वोsat भुङ्क्ते ( दिन में पाँच बार खाता है - कृत्वसुच् का प्रयोग )
। द्विरोऽधीते ( दिन