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कारक तथा विभक्ति
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प्रयोग हो सकते हैं | जगदीश सम्बन्धार्थ षष्ठी को कारकविभक्ति नहीं मानते किन्तु हेलाराज शेषषष्ठी के कारकत्व के समर्थक हैं ।
जगदीश का मन्तव्य है कि धात्वर्थ में प्रकारतया भासित होनेवाला ही कारक होता है। चूंकि सम्बन्ध के रूप में षष्ठी का अर्थ क्रिया का प्रकार नहीं हो सकता, अतः इसे कारक नहीं मान सकते । ' तण्डुलस्य पचति' इत्यादि वाक्यों का प्रयोग होता ही नहीं कि षष्ठ्यर्थ को क्रिया का प्रकार कह सकें । 'रजकस्य वस्त्रं ददाति' में रजक का सम्बन्ध वस्त्र में प्रतीत होता है - इसका बोध षष्ठी कराती है । तथापि कई स्थितियों में कारकार्था षष्ठी जगदीश को स्वीकार्य है, क्योंकि क्रिया से साक्षात् सम्बन्ध होने पर कत्रादि कारकों में वह षष्ठी आती है; यथा - ( १ ) तण्डुलस्य पाचक: । ( २ ) गुरुविप्रतपस्विदुर्गतानां प्रतिकुर्वीत भिषक् स्वभेषजैः । कुछ लोग इस उदाहरण में 'रोगान्' के अध्याहार का परामर्श देकर सम्बन्ध में ही षष्ठी मानते हैं, जब कि दूसरे लोग प्रतिकार' क्रिया में रोगनाश का अर्थ निहित मानकर अध्याहार अर्थं समझते हैं । ( ३ ) पद्मस्यानुकरोत्येष कुमारी मुखमण्डल: । ( ४ ) मातुः स्मरति । ( ५ ) चौरस्य हिनस्ति । इत्यादि ।
इन सभी मत-मतान्तरों से ऊपर होकर हम पाणिनीय सूत्रों के प्रामाण्य पर भी षष्ठी में कारकविभक्ति की पुष्टि कर सकते हैं; यथा - 'ज्ञोऽविदर्थस्य करणे' (२|३|५१), ' अधीगर्थदयेशां कर्मणि' ( २|३|५२), 'कर्तृकर्मणोः कृति' ( २।३।६५ ) इत्यादि । तदनुसार हम निम्नलिखित रूप से षष्ठी की कारक - विभक्ति का निर्देश करते हैं( क ) ज्ञा- धातु का प्रयोग यदि ज्ञान के अर्थ में न हो, प्रत्युत लक्षणा से ज्ञानपूर्वक प्रवृत्ति के अर्थ में वह प्रयुक्त हो तो उसके करण कारक में षष्ठी होती है; यथा - मधुनो जानीते ( मधु के द्वारा उसकी प्रवृत्ति होती है ) । मिथ्याज्ञान के अर्थ में भी ऐसा प्रयोग होता है । उपर्युक्त उदाहरण का तदनुसार यह भाव भी हो सकता है कि आसक्ति के कारण उसके द्वारा ( उसी रूप में ) अन्य पदार्थों को भी समझता है ( कि ये मधु हैं ) । यह मिथ्याज्ञान भी ज्ञान - भिन्न अर्थ है
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( ख ) स्मरणार्थक धातु, दय्-धातु तथा ईश्-धातु के कर्म में षष्ठी होती है, यदि शेषरूप में विवक्षा हो; यथा - मातुः स्मरति । सर्पिणो दयते । बहूनामीष्टे" ।
१. 'सम्बन्धो न कारकम्, न वा तदर्थिकापि षष्ठी कारकविभक्तिः' ।
- श० श० प्र०, पृ० २९५
२. 'क्रियाकारकपूर्वकः' इत्यनेन कारकत्वं व्याचष्टे शेषस्य ।
- वा० प० ३।७।१५६, पृ० ३५५
३. श० श० प्र०, २९५-९६ ।
४. द्रष्टव्य - काशिका ( २ 13 149 ) |
५. ‘अधीगर्थदयेशां कर्मणि' ( पा० सू० २।३।५२ ) | तत्त्वबोधिनी - 'इङिका - बध्युपसर्गं न व्यभिचरतः' ।