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कारक तथा विभक्ति
( ख ) अन्य, आरात् ( समीप ), इतर ऋते, ( विना ) तथा सामान्यतया सभी दिशावाचक शब्दों के योग में पंचमी होती है । 'अन्य' के अर्थवाले दूसरे शब्दों के साथ भी यह विभक्ति होती है - तस्मादन्यः, भिन्नः, विलक्षणः, इतरः । ऋते रवेः । उत्तरो ग्रामात्, उत्तरा ग्रामात्, उत्तराहि ग्रामात् । प्राक् ग्रामात् । किन्तु अतसुच्-प्रत्यय ( उत्तरतः, दक्षिणतः ) के अर्थ में निप्पन्न दिशावाचक शब्द के साथ केवल षष्ठी विभक्ति होती है - ग्रामस्योत्तरतः, तस्य पुरः, उपरि, उपरिष्टात् । इसी प्रकार एनप् प्रत्ययान्त दिशावाचक शब्द के योग में द्वितीया विभक्ति होती है - उत्तरेण ग्रामम् । कालिदास ने उत्तरमेध में प्रयोग किया है - ' तत्रागारं धनपतिगृहादुत्तरेणास्मदीयम्' । यहाँ 'उत्तरेण' के योग में पंचमी के प्रयोग का भ्रम नहीं होना चाहिए, क्योंकि यहाँ एनप्-प्रत्ययान्त 'उत्तरेण' शब्द नहीं है, प्रत्युत उसके अनन्तर आयी हुई पंक्ति 'दूरालक्ष्यं सुरपतिधनुश्चारुणा तोरणेन' में स्थित तोरण का विशेषण तृतीयान्त पद है । 'गृहात् ' में पंचमी दूर के योग में है ।
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( ग ) पृथक्, विना, नाना के योग में इसका तृतीया विभक्ति से विकल्प होता है - रामात् ( रामेण ) विना, नाना ।
(घ) दूर तथा निकट के बोधक शब्दों के योग में पंचमी तथा षष्ठी - ये दोनों विभक्तियाँ होती हैं - ग्रामस्य ( ग्रामात् ) दूरं निकटं, विप्रकृष्टं समीपम्, अन्तिकम्, अभ्याशम् ( पा० सू० २ | ३ | ३४ ) । इस स्थल में यह भी ज्ञातव्य है कि दूर तथा अन्तिक शब्दों में द्वितीया, तृतीया, पंचमी तथा सप्तमी होती है - दूरं दूरेण, दूरात्, दूरे ग्रामस्य ( २।३।३५-६ ) ।
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(ङ) वर्जनार्थक अप तथा परि एवं मर्यादा- अर्थवाले आङ् – इन तीन कर्मप्रवचनीयों के योग में पंचमी होती है ( २|३|१०, १/४/८८ - ९ ) । यथा - अप हरे:, परि हरेः (हरिं वर्जयित्वा ) संसारः । आ समुद्रात् ( समुद्र तक ) ।
(च) प्रतिनिधि ( मुख्य के अभाव में स्थानापन्न ) तथा प्रतिदान ( दिये गये पदार्थ को प्रकारान्तर से लौटाना ) के अर्थ में 'प्रति' कर्मप्रवचनीय है । उसके योग में ये दोनों जिससे सम्बद्ध हों उसमें पंचमी होती है । यथा - प्रद्युम्नः कृष्णात् प्रति ( प्रद्युम्न कृष्ण के प्रतिनिधि हैं ) । तिलेभ्यः प्रतियच्छति माषान् ( तिल के प्रतिदानस्वरूप--बदले में उड़द देता है ) ।
रूप में जो ऋण हो उससे पंचमी होती है - शताद् कारण वह बँधा हुआ है ) । जहाँ हेतुकर्ता के रूप में ऋण हो उसमें पंचमी विभक्ति नहीं होती, तृतीया का प्रयोग होगा ( यदि कर्मवाच्य
(छ) हेतु ( कारण ) बद्ध: ( सौ रुपयों के ऋण के
१. तत्त्वबोधिनी, पृ० ४६४ ।
२. 'प्रतिनिधिप्रतिदाने च यस्मात् ' ( २।३।११ ) - (प्रतिनिधिप्रतिदाने यत्सम्बन्धिनी ततः कर्मप्रवचनीययुक्तात्पञ्चमीत्यर्थः' ।
-ल० श० शे०, पृ० ४५९