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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
में हो )-शतेन बन्धितः ( सौ रुपयों के ऋण ने उसे बँधवा दिया है )। यह अन्तर विवक्षापेक्ष है।
( ज ) सामान्य रूप से न्यायशास्त्रीय हेतु में पंचमी का प्रयोग होता है-पर्वतोऽग्निमान्, धूमवत्त्वात् । नास्ति घट:, अनुपलब्धेः।
( झ ) जब दो वस्तुओं के स्पष्ट पार्थक्य के आधार पर निर्धारण ( गुणों के उत्कर्षापकर्ष के कारण एकांश का पृथक्करण ) किया जाय तब जिस वस्तु से निर्धारण होता है उसमें पंचमी होती है-धनाद विद्या गरीयसी। माथुराः पाटलीपुत्रकेभ्यः आढ्यतराः । निर्धारण में विभाग गम्यमान रहता है, क्योंकि एक समुदाय से अंशमात्र को पृथक किया जाता है। यह अंश समुदाय का अंग ही होता है। ऐसे स्थलों में षष्ठी या सप्तमी होती है। दूसरी ओर पंचमी के स्थल में दोनों तुलनीय पदार्थों में अन्योन्याभाव रहता है । धन विद्या नहीं है, विद्या धन नहीं है। इस प्रकार विभाग स्पष्ट रहता है।
( अ ) प्रभृति, बहिः, अनन्तरम् आदि अव्ययों के योग में भी पंचमी होती हैशैशवात्प्रभृति, पुरान् बहिरस्तु, पाणिपीडनविधेरनन्तरम् ।
(६) षष्ठी विभक्ति तथा शेष का अर्थ कारकविभक्ति-यद्यपि षष्ठी-विभक्ति का अपना कोई कारक नहीं होता क्योंकि षष्ठी से मुख्यतया द्योतित होने वाला 'सम्बन्ध' कारक नहीं है, तथापि कतिपय दूसरे कारकों में षष्ठी-विभक्ति का प्रयोग होता है। इसके लिए पाणिनि-सूत्रों का समर्थन प्राप्त है । किन्तु कुछ वैयाकरण षष्ठी का प्रयोग सम्बन्ध-मात्र में मानते हैं, यहाँ तक कि वादि में भी सम्बन्ध-मात्र की विवक्षा होने पर ही षष्ठी होती है। । नागेश इस विषय में कहते हैं कि कर्मादि में केवल क्रियायोग की विवक्षा होने पर ( ईप्सिततमस्वादि ६ विवक्षा नहीं होने पर ) षष्ठी होती है। उनका यह अभिप्राय है कि कारक-विभक्तियाँ क्रियाजनकत्व या कर्तृत्वादि शक्तियों का बोध कराती हैं । यदि उक्त शक्तिमूलक सम्बन्ध की विवक्षा हो तो षष्ठी होती है। दूसरे शब्दों में, वे प्रकारान्तर से षष्ठी की कारकबोधिका शक्ति मानते हैं। यह सत्य है कि षष्ठी मुख्यतः सम्बन्ध में नियत है, किन्तु कारकशेष ( कर्तृशेष, कर्मशेष आदि ) के रूप में इसे ग्रहण करने में कोई आपत्ति नहीं। 'सतां गतम्' ( सज्जनों का जाना) कर्तृशेष षष्ठी का उदाहरण है। 'सत्' का कर्तृत्व प्रधान रूप से विवक्षित नहीं हो रहा है - सम्बन्ध ( सत् तथा गतम् ) के रूप में उसकी विवक्षा हुई है। यदि कर्तृत्व की प्रधानता विवक्षित हो तो 'सन्तो गच्छन्ति' या 'सद्भिर्गतम्' ( अनभिहितावस्था में ) के
१. सिद्धान्तकौमुदी 'षष्ठी शेषे' के अन्तर्गत-'कर्मादीनामपि सम्बन्धमात्रविवक्षायां षष्ठ्येव'। २. 'यद्वा क्रियाकारकभावमूलकसम्बन्धस्यैव विवक्षायां, न तु तद्विवक्षायामित्यर्थः' ।
-ल. श. शे०, पृ. ४६२