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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
स्वस्वामिभावादि सम्बन्धों को शेष कहते हैं - इसमें पष्ठी होती है। कारक-विभक्ति के उपर्युक्त नियम भी प्राय: शेप पष्ठी के अन्तर्गत हैं । 'शेष' शब्द वस्तुतः अष्टाध्यायी के सूत्रों की आनुपूर्वी से सम्बद्ध है । 'बष्ठी शेषे' ( २।३।५० ) सूत्र सभी विभक्तियों के निरूपण के वाद आया है । इसके पूर्व में जिन-जिन विभक्तियों के जो-जो अर्थ बतलाये गये हैं; जैसे --- द्वितीया का कर्म, प्रथमा का प्रातिपदिकार्थ इत्यादि - उन सभी से बचे खुचे अर्थों में ( उक्तादन्य: शेप: ) षष्ठी होती है । इसी क्रम में कुछ कारक भी आ गये हैं, जो कुछ विशिष्ट धातुओं से विशिष्ट स्थिति में षष्ठी विभक्ति का ग्रहण करते हैं । उनके अतिरिक्त कई प्रकार के सम्बन्ध भी पष्ठी के अर्थ हैं, जो उसकी उपपदविभक्ति का नियमन करते हैं । अतएव शेप पष्ठी के दो स्पष्ट भेद हैं-कारकों की शेप विवक्षा होने पर शेषषष्ठी तथा सम्बन्ध की शेष षष्ठी । प्रथम भेद में क्रियासम्बन्ध रहता है, जब कि दूसरे प्रकार में नहीं रहता, नाम-पदों का परस्पर सम्बन्ध रहता है; यथा--- राज्ञः पुरुषः । पशोः पादः । पितुः पुत्रः । इनमें क्रमशः स्वस्वामिभाव, अवयवावयविभाव तथा जन्यजनकभाव हैं । हेलाराज कहते हैं कि राजा पुरुष को दान करता है, इसीलिए उनमें उक्त सम्बन्ध अवस्थित है । अतएव उनमें कभी क्रियाकारक-सम्बन्ध भी कारणरूप में था, किन्तु अब फल के रूप में शेष - सम्बन्ध विद्यमान है । पूर्व-सम्बन्ध उत्तर-सम्बन्ध का निवेश करके स्वयं विरत हो गया है । इसी से भर्तृहरि ने सम्बन्ध का लक्षण इस प्रकार किया है
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'सम्बन्धः कारकेभ्योऽन्यः क्रियाकारकपूर्वकः ।
श्रुतायामश्रुतायां वा क्रियायां सोऽभिधीयते ॥ - वा० प० ३।७।१५६
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हमने देखा कि राजा और पुरुष पहले क्रमशः कर्ता तथा सम्प्रदान थे । भाष्यकार पतंजलि ही इसका समर्थन करते हैं - 'राज्ञः पुरुषः इति राजा कर्ता, पुरुषः सम्प्रदानम् ' ' । किन्तु शेष-सम्बन्ध के समय इनके कर्तृत्वादि विशेष रूपों का बोध नहीं होता, इसलिए यहाँ कारक-शेष का रूप हो गया है । 'कारकों से भिन्न' होने का अर्थ इतना ही है कि उस (शेष सम्बन्ध ) में कारकों की विवक्षा नहीं होती ।
यह विचारणीय है कि नाम-पदों को ( जो द्रव्य के बोधक हैं ) परस्पर सम्बद्ध करना तब तक कठिन है जब तक क्रिया का आश्रय न लें - क्रिया श्रुत हो या अश्रुत हो - कोई भेद नहीं होता । द्रव्य तो सिद्ध पदार्थ होने के कारण लौह-शलाकाओं के समान हैं, जिनमें बिना किसी बाह्य निमित्त के परस्पर सम्बन्ध नहीं हो सकता । क्रिया के ही द्वारा कोई भी सम्बन्ध बनाया जा सकता है । यह क्रिया द्रव्यों का उपश्लेषण
१. ' क्रियाकारकसम्बन्धो हि वृत्तः स्वाश्रये शेष सम्बन्धं फलं निवेश्योपरमते' | - हेलाराज ३, पृ० ३५५ २. द्रष्टव्य - महाभाष्य २, पृ० ५१८ - प्रदीप ( वहीं ) - 'राजा पुरुषाय ददाती - त्यर्थं सम्प्रत्ययात्' ।