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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन (ड) जिस लक्षण ( चिह्न ) के द्वारा किसी वस्तु का प्रकार-विशेष ज्ञात हो उसमें तृतीया होती है; यथा-जटाभिस्तापसः, पुस्तकेन छात्रमपश्यम् । यहाँ जटा तथा पुस्तक क्रमशः तापस तथा छात्र के विशिष्ट लक्षण हैं, जिनसे उन्हें पहचाना जा सकता है । किन्तु 'कमण्डलुपाणिः छात्रः' में तृतीया नहीं होगी, क्योंकि समास में लक्षण अन्तर्भूत हो गया है। विग्रह होगा-कमण्डलु: पाणौ यस्य ( बहुव्रीहि )। नागेश बतलाते हैं कि यद्यपि 'जटाभिस्तापसः' में ज्ञानक्रिया के करण के रूप में जटा की सिद्धि हो जाती है तथापि वह यहाँ अविवक्षित है। केवल लक्ष्यलक्षणभाव की यहाँ विवक्षा है।
( च ) हेतु-बोधक शब्द में तृतीया होती है-धनेन कुलम् । विद्यया यशः । करण तथा हेतु का विचार हम करण-कारक के प्रसंग में करेंगे । यदि हेतुवाचक शब्द गुण हो तो उससे वैकल्पिक तृतीया होती है ( पक्ष में-पञ्चमी )-जाड्येन बद्धः ( जाड्याद् वा ) । स्त्रीलिंग गुण-शब्दों से केवल तृतीया होती है-बुद्धया मुक्तः, प्रज्ञया मुक्तः ।
( छ ) हेतु-शब्द या उसके पर्याय का प्रयोग हो तो सर्वनाम से तृतीया इत्यादि सभी विभक्तियाँ होती हैं- केन हेतुता, केन निमित्तेन वसति । कस्मै निमित्ताय इत्यादि । ( सर्वनाम्नस्तृतीया च २।३।२७ )।
( ज ) पृथक्, विना, नाना-इनके योग में तृतीया तथा पञ्चमी विभक्तियाँ होती हैं।
( झ ) तुल्यार्थक शब्दों में तृतीया ( तथा षष्ठी ) होती है-कृष्णेन (कृष्णस्य ) तुल्यम्, सदृशम्, समानम् ।
(४) चतुर्थी कारकविभक्ति-( क ) सभी सम्बद्ध सूत्रों तथा वार्तिकों के द्वारा विहित अनिभिहित सम्प्रदाय कारक में तुर्थी विभक्ति होती है। यथा-ब्राह्मणाय गां ददाति । पत्ये शेते । बालकाय मोदकः स्वदते । शताय ( शतेन ) परिक्रीतः भृत्यः ।
( ख ) चेष्टा का बोध करानेवाले गत्यर्थक धातुओं के कर्म-कारक में मार्गवाचक शब्दों को छोड़कर द्वितीया तथा चतुर्थी--ये दोनों विभक्तियां होती हैं । यथा-प्रामं ( ग्रामाय वा ) व्रजति । चेष्टा का अर्थ नहीं होने पर केवल द्वितीया होती है-मनमा पाटलिपुत्रं व्रजति । यहाँ मानसिक गति का अर्थ है-चेष्टा ( बाह्य गति का नहीं)। इसी प्रकार मार्गवाचक शब्द कर्म में हो तो केवल द्वितीया होती हैमार्ग, पन्थानं गच्छति । किन्तु जहाँ कुपथ से सुपथ पर जाने का अर्थ हो वहां चतुर्थी होती है-पथे गच्छति (पा० सू० २।३।१२)। गत्यर्थक धातुओं के प्रयोग में द्वितीया,
१. लघुशब्देन्दुशेखर, पृ० ४३६ ।
२. द्रष्टव्य-हरिहरकृपालुद्विवेदी शताब्दी ग्रन्थ में लेखक का निबन्ध-हेतुकरणविवेकः ।