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क्रिया तथा कारक
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जो कारक के बहिरंग का निरूपण करते हैं । यदि भाषा प्रयोग के क्षेत्र में वक्ता की उदारता तथा यदृच्छा पर ध्यान दें तो कोई-न-कोई ऐसा उदाहरण मिल ही जायेगा जिसमें लक्षण की अतिव्याप्ति या अव्याप्ति होगी । अतएव भर्तृहरि के 'शक्ति: साधनम्' का दार्शनिक सिद्धान्त ही इस दिशा में एकमात्र ज्योतिः स्तम्भ है । नागेश ने लघुमञ्जूषा के सुबर्थ प्रकरण में यही सिद्धान्त अपनाया है, तथापि अपने अन्य ग्रन्थों में वे लौकिक दृष्टि रखने वालों के लिए उपर्युक्त लक्षणों की ही अरण्यानी में विचरण करते रहे हैं ।
कारक क्रिया को उत्पन्न करने की शक्ति का ही दूसरा नाम है ( कारकं क्रियाजनकत्वशक्तिः ) । यह शक्ति द्रव्य में स्थित होती है, इसे साधन भी कहा जाता है । जिस प्रकार 'कारक' नामकरण क्रिया ( कृ धातु ) की अपेक्षा से हुआ है, इसी प्रकार क्रिया के साध्यतारूप लक्षण की अपेक्षा से इसे 'साधन' नाम भी दिया गया
| चूँकि सिद्ध द्रव्य स्वरूपतः क्रियाजनक नहीं हो सकता, अतः उसमें शक्ति का आधान करना आवश्यक है, जिससे वह क्रिया की सिद्धि कर सके । यद्यपि द्रव्यों में सभी शक्तियाँ सदा ही समवाय सम्बन्ध से रहती हैं, किन्तु विवक्षा के अधीन उनमें किसी एक समय में एक ही शक्ति का प्रकाशन होता है । यही कारण है कि किसी द्रव्य में एक समय में एक ही कारक शक्ति उद्भूत होती है । जब 'स्थाली पचति' कहते हैं तब पता चलता है कि स्थाली की कर्तृत्वशक्ति प्रकट हुई है । कालान्तर में हम 'स्थाल्यां पचति' भी कह सकते हैं तब इसमें अधिकरणत्वशक्ति का उद्भव विवक्षित होता है ।
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नागेश कहते हैं कि यदि द्रव्य ही कारक होता तो उसकी एकरूपता के कारण जगत् के कार्यों में पायी जानेवाली विचित्रता का उपपादन नहीं हो सकता । 'घटं पश्य, घटेन जलमाहर, घटे जलं विधेहि' इत्यादि में घटादिगत कार्य वैचित्र्य का अनुभव हमें अहर्निश होता रहता है । द्रव्यगत शक्ति को साधन मानने पर इस कार्य - वैचित्र्य की उपपत्ति हो सकती है, क्योंकि उपर्युक्त रीति से सभी द्रव्यों में सभी शक्तियों की आश्रयता रहने से कालविशेष में शक्तिविशेष की ही विवक्षा होगी तथा ये विविध कार्य सरलता से व्याख्येय होंगे। कभी-कभी लोक व्यवहार में शक्ति से आविष्ट द्रव्य को भी साधन के रूप में कहा जाता है; जैसे - वृक्ष अपादान कारक है, राम कर्ता है इत्यादि । इसका कारण है शक्ति तथा शक्तिमान् का अभेद - बोध' । हेलाराज ने इसे संसर्गवादी वैशेषिकों का मत बतलाया है । 'शक्त्या करोति' इस
१. ' शक्तिमात्रासमूहस्य
विश्वस्यानेकधर्मणः ।
सर्वदा सर्वथा भावात् चित् किञ्चिद् विवक्ष्यते ॥ २. 'शक्तयः शक्तिमन्तश्च सर्वे संसर्गवादिनाम् । भावास्तेष्वथ शब्देषु साधनत्वं निरूप्यते ' ॥
- वा० प० ३।७।२
-वा० प० ३।७१९