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क्रिया तथा कारक
माध्यम से क्रियोपकारक होते हैं । अतएव वे गौण अर्थ में कारक कहलाते हैं । यथा-'स्थाल्यां पचति' अधिकरण कारक का उदाहरण है । यहाँ स्थालीगत अधिकरणत्वशक्ति इसीलिए क्रियोपकारक कही जाती है कि स्थाली क्रिया के फल को धारण करने वाले ओदन ( कर्म ) को धारण किये हुई है । इसीलिए यह क्रिया से परोक्षतः सम्बद्ध है । इसी प्रकार 'असिना छिनत्ति' में असि-निष्ठ करणत्वशक्ति छेदन क्रिया में कर्ता की सहायता करती है । कर्ता छेदन - क्रिया में स्वतन्त्रतया प्रवृत्त होने पर भी इसमें असिरूप साधन की आवश्यकता समझता है, जिसके प्रयोग के बाद क्रिया अव्यवहित तथा सुचारु रूप से सम्पन्न हो जाती है ।
कर्ता, कर्म, करण तथा अधिकरण - इन चार कारकों की ही सूक्ष्म कर्तृत्वशक्ति सामान्यतया अभिव्यक्त होने की क्षमता रखती है । इस दृष्टि से सम्प्रदान तथा अपादान पीछे पड़ जाते हैं । अतएव तृतीय चरण में हम इन चारों को ही प्रधान कारक स्वीकार कर सकते हैं ।
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सम्प्रदान तथा अपादान की कारकता
किन्तु यह बात नहीं कि सम्प्रदान तथा अपादान में क्रियाजनकता नहीं है । प्रकार तथा उपकार के तारतम्य के कारण थोड़ा अन्तर अवश्य है । अपादान की स्वीकृति का स्वरूप हम पहले स्पष्ट करें । कर्ता में स्थित, गति भी होती है, जिसके दो प्रकार हैं— अन्तर्गत तथा बहिर्गत । बहिर्गत गतिविधि की स्थिति में एक ऐसी वस्तु की आवश्यकता होती है जहाँ से गति का प्रारम्भ हुआ हो । गतिक्रिया में विभाग तो होता ही है जिसमें दो अनिवार्य तत्त्व हैं - एक तो गति धारण करनेवाला कर्ता, दूसरा वह पदार्थ जहाँ से गति का आरम्भ हुआ हो । इस अन्तिम को ही अवधि कहते हैं। यह भी दो प्रकार की होती है- - या तो यह कर्ता की गति में क्रियाशील होगी या उदासीन रहेगी । क्रियाशील रहने की स्थिति में यह स्वयं भी कर्ता ही हो जायगी; जैसे -- मेषावपसरत: ( दोनों भेंड़ें अलग हो रही हैं ) । किन्तु यदि यह अवधि उदासीन है तो अपादान कारक है; जैसे- - वृक्षात् पत्रं पतति । उदासीन अवधिभूत वृक्ष से कर्ता ( पत्र ) की गति आरम्भ होती है, अतः कर्ता के द्वारा निष्पन्न होतेवाली गतिक्रिया में अपादान उपकारक है । अपादान सभी धातुओं के प्रयोग की स्थिति में नहीं होता, केवल विभागजनक धातुओं की दशा में ही यह होता है । इसमें भी यह आवश्यक है कि प्रकृत धातु का वाच्यार्थ विभाग नहीं हो; त्यज् का अर्थ ही विभाग है, इसके प्रयोग में अपादान नहीं हो सकता - 'वृक्षं त्यजति' ।
इसी प्रकार सम्प्रदान में भी क्रिया का परोक्षतया उपकार होता है । क्रिया का कुछ फल तो होता ही है जिसे कर्म धारण करता है । 'घटमानय' में आनयन क्रिया इस प्रकार की जाती है कि घट यथाशीघ्र सामने आ जाय । किन्तु कुछ स्थितियों में यह सद्यः फल किसी दूसरे फल की प्राप्ति में साधक बन जाता है; जैसे- 'ब्राह्मणाय घटं
1. R. C. Pandey, Problen of Meaning in Indian Phil., p. 144.