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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
(१) ग्रामस्य समीपादागच्छति-इस वाक्य में अकारक-रूप ग्राम की अपादान मानना पड़ेगा। वृक्ष की शाखा से गिरने वाला जैसे वृक्ष से भी गिरता हुआ माना जाता है, उसी प्रकार ग्राम के समीप से आनेवाला व्यक्ति ग्राम से भी आ रहा है । 'समीप' के समान 'ग्राम' भी अपाय की स्थिति में ध्रुव ही है। यदि 'ध्रुवमपायेऽपादानम्' में कारक-लक्षण की. अनुवृत्ति ले जायें कि कारक होने पर ही ध्रुव को अपादान कहा जा सकता है, तभी ग्राम के अपादानत्व का वारण हो सकेगा। इसलिए कारक के लक्षण का निर्देश आवश्यक है। इसके उत्तर में पतंजलि कहते हैं कि यहाँ ग्राम अपाययुक्त है ही नहीं। यदि अपाययुक्त होता तो 'ग्रामादागच्छति' प्रयोग करके उसे अपादान बनाने में कोई आपत्ति ही नहीं होती।
( २ ) वृक्षस्य पर्ण पतति-इसमें कारक-लक्षण के अभाव में वृक्ष के अपादान होने का अनिष्ट-प्रसंग आ जाता है। यहाँ भी पतंजलि अपाय की अविवक्षा का आलम्बन लेकर सिद्ध कर देते हैं कि वृक्ष अपादान नहीं है । तदनुसार 'कारक' के लक्षण-निर्देश की आवश्यकता उन्हें नहीं प्रतीत होती। कारण यह है कि 'कारक' महती संज्ञा अर्थात् अन्वर्थ संज्ञा है। लौकिक दृष्टि से इसका जो अर्थ है, वही इस शास्त्र में भी है-कारक = करनेवाला, साधक, सम्पादक । ___ इस अन्वर्थता पर भी शंका हो सकती है, क्योंकि इस अर्थ में कारक-संज्ञा केवल कर्ता को ही हो सकेगी, अन्य कारकों को नहीं। सत्य यह है कि अन्य कारकों में सूक्ष्म रूप में कर्तृभाव रहता ही है, क्योंकि वे यथाशक्ति क्रिया की सिद्धि में विभिन्न अवयवों का सम्पादन करते हैं। इसका विचार हम कर्ता के प्रकरण में करेंगे । कर्ता जहाँ सम्पूर्ण क्रिया पर अपना कारकत्व रखता है, वहाँ अन्य कारकों की शक्ति सीमित मात्रा में है । उदाहरणार्थ पापक्रिया में स्थाली ( अधिकरण ) की कारकता अन्न को अपने भीतर धारण करने में कारण है, जिससे वह कर्तृभाव प्राप्त करती है। यह स्थिति वास्तव में क्रियासिद्धि में पदार्थों की स्वतन्त्र या परतन्त्र प्रवृत्ति पर निर्भर करती है । सभी कारक क्रियासिद्धि करते हैं। कभी वे स्वतन्त्र रूप से इसमें प्रवृत्त होते हैं, तब इनका कर्तृभाव उत्पन्न होता है और परतन्त्र रूप से कर्ता के अधीन प्रवृत्ति होने पर ये तत्तत् कारकों का रूप ग्रहण करते हैं। इस सिद्धान्त को ठीक से समझने के लिए कारक को शक्तिरूप में देखना होगा।
कारक की शक्तिरूपता ( भर्तृहरि का मत ) भर्तृहरि तथा उनके अनुयायी दार्शनिकों ने साधन ( कारक ) को शक्ति के रूप में निरूपित किया है । यह समस्त संसार शक्ति का संघात है । घट में जल के उत्पादन की शक्ति है तो बीज में अंकुर के उत्पादन की शक्ति है । सभी पदार्थ कुछ-न-कुछ क्रिया निष्पन्न करने की शक्ति रखते हैं। यह शक्ति द्रव्य में समवेत रहने के कारण द्रव्य से भिन्न है । किन्तु न्याय-वैशेषिक दर्शनों में शक्ति की द्रव्य भिन्नता स्वीकार नहीं की जाती । उनका कहना है कि अग्नि तथा उसकी दाहिका शक्ति भिन्न पदार्थ नहीं