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क्रिया तथा कारक
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चलता,
किन्तु लक्षणा सामान्यतया मानी जानेवाली वृत्ति नहीं है । जब शक्ति से काम नहीं तभी लक्षणा का ग्रहण किया जाता है । हमारे दैनिक व्यवहार में अचेतन पदार्थों का किसी अर्थान्तरण के बोध के बिना कर्तृरूप में प्रयोग होता है । 'गङ्गायां घोप:' के समान 'रथो गच्छति' के प्रयोग में कोई विवशता नहीं है । लक्षणा में प्रयोक्ता तथा बोद्धा दोनों को विशेष श्रम करना पड़ता है, किन्तु 'रथो गच्छति' आदि वाक्य विना अल्प आयास के ही प्रयुक्त होते तथा समझे भी जाते हैं । चेतन को कर्ता बनाकर प्रयुक्त होनेवाले वाक्यों के समान ही अचेतन-कर्तृ के वाक्यों का भी बोध होता है । उनमें अर्थ के परिवर्तन का भी कोई प्रश्न नहीं उठता। मुख्यार्थ में ही अचेतन के कर्तृत्व की सिद्धि होने से कर्ता को कृति का आश्रय नहीं कहा जा सकता और न ही कृति तिङ् प्रत्यय का अर्थ हो सकती है' । वास्तव में कृति की आख्यातार्थता तथा चेतन का कर्तृत्व परस्पर संयुक्त तथ्य हैं। एक के खण्डन से दूसरे का खण्डन अनिवार्य है ।
वैयाकरणों के अनुसार तिङ् का अर्थ 'आश्रय' है, जो कर्ता तथा कर्म के रूप में है । यह निरूपण करना तिङ् का काम है कि धात्वर्थ की आश्रयता कहाँ है— कर्ता में या कर्म में ? कर्तृवाचक तिङ् प्रत्यय की उपस्थिति में धात्वर्थ का आश्रय कर्ता होता है, किन्तु कर्मवाचक तिङ् की उपस्थिति में धात्वर्थ कर्म पर आश्रित रहता है । भाववाच्य में होनेवाला तिङ् धात्वर्थमात्र का अनुवाद करता है । ये तथ्य हमें पाणिनि के उपर्युक्त 'ल: कर्मणि' इत्यादि सूत्र से ज्ञात होते हैं । तदनुसार धातु से फल और व्यापार का बोध होता है तथा उसमें लगने वाले तिङ् प्रत्यय उनके आश्रयों का बोध कराते हैं कि फल तथा व्यापार कहाँ पर स्थित है ? 'ओदनः पच्यते' में तिङ् कर्मवाच्यस्थ होने के कारण फलाश्रय रूप कर्म का बोध कराता है तो 'रामो गच्छति' में कर्तृस्थति व्यापार के आश्रय कर्ता का बोधक है । इसे ही व्याकरण में अभिधान कहते हैं । इसीलिए प्रकारान्तर से कर्ता, कर्म या भाव को भी तिङ् का अर्थ कहा जाता है।
धातु व्यापक अर्थ धारण करने वाला शब्द है, जिसे विभिन्न परिस्थितियों तथा प्रकरणों में प्रयुक्त किया जा सकता है । इसकी उक्त व्यापकता पर प्रत्ययों के द्वारा नियन्त्रण रखा जाता है, जिससे धातु स्थिति- विशेष में सीमित हो । गम्-धातु की अपार शक्ति है, किन्तु जब इसमें तिप् प्रत्यय लगाकर 'गच्छति' बनाते हैं तब यह केवल प्रथमपुरुष, एकवचन तथा वर्तमान काल में सीमित हो जाता है। दूसरे पुरुषों, वचनों या कालों के बोध की क्षमता समाप्त हो जाती है । प्रत्ययों के द्वारा धातु के व्यापक अर्थ का नियन्त्रण करके उसे विशिष्ट अर्थ में लाया जाता है, जिससे वह बोधगम्य होता है । बोधगम्य होने के लिए किसी भी पदार्थ को सामान्य से विशेष पर आना ही होता है, क्योंकि बोध अनुवृत्त बुद्धि से नहीं अपितु व्यावृत्त बुद्धि से होता है कि अमुक वस्तु यह
१. ल० म०, पृ० ७३७ ।