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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
गत्यर्थकर्म में द्वितीया तथा चतुर्थी का ( यथा—ग्रामं ग्रामाय वा गच्छति ), ल्यप-प्रत्यय का लोप होने पर कर्म में पंचमी का ( यथा-प्रासादात् प्रेक्षते ) तथा इन्-प्रत्यय से सम्बद्ध क्त-प्रत्ययान्त के कर्म में सप्तमी का ( यथा-अधीती व्याकरणे) इस प्रकार के विधान हुए हैं । नैयायिकों को फल का बोध करने के लिए इन अनेकानेक सुप और तिङ् विभक्तियों में शक्ति की कल्पना करनी पड़ेगी। विभिन्न धातुओं के समभिव्याहार को फलबोध का प्रयोजक मानना पड़ेगा, जैसे गम्-धातु के समभिव्याहार ( उपस्थिति ) में संयोगरूप फल का होना । यह कल्पना-गौरव है । इससे तो अच्छा है कि धातु में ही फलबोधकता-शक्ति स्वीकार कर लें। यदि ‘पच्यते तण्डुलः स्वयमेव' ऐसा कर्मकर्तृवाच्य का प्रयोग हो तब तो फल को धातुवाच्य मानना ही होगा। नैयायिक फल को कर्मप्रत्यय का अर्थ बतलाते हैं । यहाँ विक्लित्तिरूप फल का आश्रय तण्डुल व्यापार के आश्रय के रूप में भी विवक्षित है, उसका अभिधान भी हो रहा है । अतः धातु फल और व्यापार दोनों का बोध करा रहा है। ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि केवल व्यापार या केवल फल को धात्वर्थ मानने वाले मत एकांगी हैं। वास्तव में व्यापार और फल को पृथक् नहीं रखा जा सकता है, क्योंकि वे दोनों ही धातु के अर्थ हैं। फल के बिना व्यापार था व्यापार के बिना फल की कल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि वैसा करने से वे निरर्थक हो जायेंगे । दोनों का संयोग होने पर ही धातु का पूरा अर्थ व्यक्त होता है। इन्हें परस्पर विशेषण तथा विशेष्य के रूप में रखा जाता है । व्यापार तथा फल के मध्य कौन विशेषण होगा और कौन विशेष्य-यह वाच्य-प्रयोग पर निर्भर करता है।
कर्तृवाच्य में व्यापार को प्रधानता कर्तृवाच्य में, जहाँ कर्ता अभिहित होता है, धातु के अर्थ में व्यापार विशेष्य एवं फल । शेषण रहता है । इसका कारण यह है कि फल कर्तृ-प्रत्यय के समभिव्याहार के स्थल में उससे सम्बद्ध धातु के अर्थ ( व्यापार-विशेष्यक अर्थ ) से उत्पन्न होता है । तदनुसार यहाँ 'फलानुकूल व्यापार' ऐसा धात्वर्थ होगा। उदाहरणार्थ गम्धातु का अर्थ यदि कर्तृवाच्य के स्थल में व्यक्त करना हो तो कहेंगे-उत्तरदेश संयोग के अनुकूल पाद-प्रक्षेप आदि व्यापार । पच-धातु के कर्तृवाच्य में 'रामः पचति' का इसीलिए बोध होता है-'रामाभिन्नकर्तृकानविक्लित्यनुकलः स्थाल्यधिश्रयणादिव्यापारः'। इसमें व्यापार का अधिक महत्त्व रहता है । हम देखते हैं कि स्थाली का अधिश्रयण ( चूल्हे पर रखना ) आदि व्यापार पहले होता है, तब अन्न की कोमलतारूप फल प्राप्त होता है । कर्तृवाच्य में कर्ता का अभिधान या प्राधान्य होता है और वही कर्ता व्यापार का आश्रय होता है। इस प्रकार कर्तृवाच्य में व्यापार की प्रधानता होती है एवं परवर्ती होने के कारण फल अप्रधान या गुणीभूत हो जाता है। किन्तु
१. 'फलत्वं च कर्तृप्रत्ययसमभिव्याहारे तद्धात्वर्थजन्यत्वे सति तद्धात्वर्थनिष्ठविशेष्यतानिरूपितप्रकारतावत्त्वम् ।
- म०, पृ० ५४०