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क्रिया तथा कारक का अन्वय तो अपने वाचक तिड के अर्थभूत व्यापार में ही हो सकेगा, क्योंकि, यही उसका अन्वयी है । तिङ का अर्थ है--शिष्यों का व्यापार । अतः एकवचनरूप तिङ् के साथ अन्वित हो सकने के लिए शिष्य ( प्रयोज्य ) में द्विवचन नहीं हो सकेगा। शिष्य के द्विवचन को बचायें तो 'पाचयति' में एकवचन असिद्ध होगा। पुनः गुरु का अभिधान तिङ द्वारा नहीं होने से उसमें प्रथमा विभक्ति भी नहीं होगी। और दूसरी ओर, शिष्य का तिङ द्वारा अभिधान होने से उसमें प्रथमा होगी। इस प्रकार व्यापार को प्रत्ययार्थ मानने पर दोपों की एक लम्बी शृंखला प्रक्रान्त हो जाती है।
धात्वर्थ के एकाङ्गी सिद्धान्त इस विशद विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि मीमांसकों का यह सिद्धान्त कि फल मात्र धात्वर्थ है -कभी भी मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि वह धातु के आंशिक अर्थ को ही प्रकट करता है । मीमांसकों के समान ही प्राचीन नैयायिकों का सिद्धान्त भी धातु के आंशिक अर्थ को स्वीकार करता है। वे लोग व्यापार मात्र में धातु की शक्ति स्वीकार करते हैं तथा फल को कर्म-प्रत्यय का अर्थ मानते हैं। इस मत में भी उसी प्रकार सभी असंगतियाँ उपस्थित होंगी जिस प्रकार फल को धात्वर्थ मानने पर होती हैं। नागेश ने इसकी भी सबल समालोचना की है।
प्राचीन नैयायिकों के मत की असंगति दिखलाने के लिए हम दो उदाहरण लें'रामो ग्रामं गच्छति' तथा 'रामो ग्रामं त्यजति', प्रथम उदाहरण में राम का किसी स्थान से विभाग होकर ग्राम से संयोग होता है और दूसरे उदाहरण में उसका ग्राम से विभाग होकर दूसरे किसी स्थान से संयोग होता है। पहली स्थिति में रामगत व्यापार अनिवार्यतया संयोगरूप ही नहीं विभागरूप भी हो सकता है, क्योंकि राम जहाँ खड़ा था उस देश से उसका विभाग रूप व्यापार तो होता ही है। उसी प्रकार 'ग्रामं त्यजति' में रामगत व्यापार न केवल विभागरूप ही है, प्रत्युत संयोग रूप भी है । फलस्वरूप गम्-धातु का अर्थ विभाग तथा त्यज्-धातु का अर्थ संयोग भी होने लगेगा । यह स्पष्ट रूप से उनका असंगत अर्थ है । अतः व्यापारमात्र को धात्वर्थ मानना उचित नहीं, क्योंकि उपर्युक्त स्थितियों में त्याग और गमन में कोई अन्तर नहीं रह जायेगा अर्थात् दोनों में समान व्यापार होने से ये पर्याय कहे जायेंगे। यदि उत्तर में नैयायिक कहे कि यहाँ फल से अवच्छिन्न व्यापार का बोध होता है तो वे सर्वत्र सभी धातुओं में ऐसा क्यों नहीं मानते ?
१. ल० म०, पृ० ५३५। तुलनीय--'क्रियामात्रं ( केवलं व्यापारमात्रं ) धात्वर्थः । फलं तु कर्मप्रत्ययेन बोध्यते इति प्राञ्चो रत्नकोशकृत्प्रभृतय आहुः' ( तत्त्वचिन्तामणि )।
-न्या० को०, पृ० ३९१ पर उद्धृत २. ल० म०, पृ० ५३५-३६ । ३. 'ग्रामं गच्छतीत्यत्र विभागस्य, त्यजतीत्यत्र संयोगस्य बोधापत्तेः'।
-ल० म०, पृ० ५३५ ५सं०