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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
थे। इस व्याकरण के अतिरिक्त इन्होंने 'कविकल्पद्रुम' नामक धातुपाठ का संग्रह किया था। वंग प्रदेश में हिन्दू राज्य के पतन के बाद मुग्धबोध का प्रवेश हुआ तथा प्राचीन वैयाकरणों की भाषा-वृत्ति इत्यादि ग्रन्थों का समुच्छेद होने लगा। सम्प्रति मुग्धबोध का अध्ययन नवद्वीप तक सीमित है। इसमें अभिनव संज्ञा-शब्दों का व्यवहार किया गया है, जैसे-ध ( धातु ), वृ ( वृद्धि ) । इस पर नन्दकिशोर, विद्यानिवास आदि आचार्यों ने टीकाएँ लिखी हैं ।
(१०) सौपद्म-- इस सम्प्रदाय का प्रवर्तन पद्मनाभदत्त ने सुपन नामक व्याकरण ग्रन्थ लिखकर किया था। ये मिथिला के निवासी थे' तथा १५वीं शताब्दी में हुए थे। अपने व्याकरण पर इन्होंने स्वयं पंजिका नामक टीका लिखी थी। इसके अतिरिक्त अपने अन्य ११ ग्रन्थों की चर्चा इन्होंने अपनी परिभाषावृत्ति में की है। सुपद्म व्याकरण पर विष्णुमित्र की लिखी हुई सुपद्म-मकरन्द टीका सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है । इस व्याकरण में भी प्रक्रिया का क्रम है ।
अन्य शास्त्रों में कारक-चर्चा कोई भी शास्त्र अपने सहयोगियों से विच्छिन्न होकर नहीं चल सकता। उसे अपने विषय के प्रतिपादन के समय अन्य शास्त्रों की चर्चा करनी ही पड़ती है। चाहे उसका लक्ष्य शास्त्रान्तर के विषयों का निरसन करना हो या अपने मत की पुष्टि का अन्वेषण करना हो-दोनों ही स्थितियों में एक शास्त्र में दूसरे शास्त्र की चर्चा होती है। इस प्रकार विभिन्न शास्त्रों के सहयोग-सम्पर्क से किसी विषय का सर्वांगपूर्ण अध्ययन सम्भव है । इसी से प्रज्ञा में विश्लेषणशक्ति आती है। भर्तृहरि ने कहा है
'प्रज्ञा विवेकं लभते भिन्नरागमदर्शनैः ।
कियद्वा शक्यमुन्नेतुं स्वतमनुधावता' ॥ -वा० प० २।४८६ मनुष्य केवल एक शास्त्र में सीमाबद्ध होकर कहाँ से विवेक पा सकता है ? भाषा के अध्ययन में पद तथा पदार्थ का विवेचन मुख्य है, जिसका सम्बन्ध क्रमशः व्याकरण तथा वैशेषिक दर्शन से है । इन दोनों शास्त्रों के विषयों की आवश्यकता सभी शास्त्रों को न्यूनाधिक रूप में होती है। ( 'काणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्'-लोकोक्ति )। इनमें भी भाषा का सीधा सम्बन्ध व्याकरणशास्त्र से ही है, जिसके अभाव में पद-साधुत्व का ज्ञान नहीं हो सकता। इसीलिए शास्त्रान्तर में प्रवेश करने के लिए व्याकरण का अध्ययन सर्वप्रथम अनिवार्य योग्यता है। अपने पाठकों को इसीलिए व्याकरण में अधीती मानकर अन्य शास्त्रकार स्वाभाविक रूप से व्याकरण के विषयों की चर्चा अपने प्रतिपाद्य विषयों के प्रसंग में करते हैं। कुछ शास्त्रों में तो इसकी अनिवार्यता है । कुछ शास्त्र उदाहरण के रूप में यह चर्चा करते हैं तो अन्य शास्त्रों को व्याकरण के सिद्धान्त निरसन-योग्य प्रतीत होते हैं। जो भी
9. K. V. Abhyankar, A Dictionary of Skt. Grammar, p. 400.
४सं.