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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्वानुशीलन
इनके सहायक गुर्जरनरेश महाराज सिद्धराज तथा कुमारपाल आचार्य भी थे। जैन ग्रन्थों में हेमचन्द्र के अप्रतिम वैदुष्य की अनेक स्थलों में चर्चा है। इन्हें 'कलिकालसर्वज्ञ' तक कहा गया है । सिद्धराज के ही आदेश से इन्होंने अपना शब्दानुशासन लिखा था। इसमें कुल आठ अध्याय हैं, जिनमें प्रत्येक में ४-४ अध्याय हैं । प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का व्याकरण है तथा आठवें अध्याय में अनेक प्रकार की प्राकृत भाषाओं का अनुशासन है। सूत्रों की संख्या क्रमशः ३५६६ तथा १११९ है । जैन परम्परा के अनुसार इसकी रचना में हेमचन्द्र को कुल एक वर्ष लगा था ( ११३६-७ ई० ) । इस शब्दानुशासन की रचना प्रक्रिया-क्रम से हुई है, जिसमें क्रमशः संज्ञा, स्वरसंधि, व्यंजनसंधि, नाम, कारक, षत्व-णत्व, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त तथा तद्धित-प्रकरण हैं । व्याकरण के अतिरिक्त अन्य अनेक शास्त्रों पर हेमचन्द्र ने अपने ग्रन्थ लिखे थे । हैम शब्दानुशासन को अनेक आचार्यों ने अपनी टीकाओं के द्वारा समृद्ध किया, जिनमें स्वयं हेमचन्द्र का बृहन्न्यास, देवेन्द्रसूरि का लघुन्यास तथा मेघविजय की हैमकौमुदी प्रमुख हैं।
(७) जौमर-इसका प्रवर्तन क्रमदीश्वर ( १३वीं शताब्दी ई०) ने अपना संक्षिप्तसार व्याकरण लिखकर किया था। उन्होंने अपने व्याकरण पर रसवती नामक वृत्ति भी लिखी थी। इसी वृत्ति का परिष्कार १४वीं शताब्दी ई० में जुमरनन्दि के द्वारा हुआ था, जिससे इस सम्प्रदाय का नाम ही जीमर ( या जौमार) पड़ा । जुमरनन्दि किसी प्रदेश के राजा थे। जौमर व्याकरण की रचना प्रक्रिया-क्रम से हई है। इसका परिशिष्ट गोपी( यी )चन्द्र ने ( १५वीं शताब्दी ) जोड़ा था तथा मूल ग्रन्थ पर भी टीका लिखी थी। इस टीका पर कई वंगीय विद्वानों ने व्याख्याएँ लिखी हैं । इसका प्रचार केवल वंग-प्रदेश तक सीमित है।
(८) सारस्वत-नरेन्द्र नामक किसी विद्वान् ने सरस्वती की प्रेरणा से प्रायः ७०० सूत्रों में ही संस्कृत भाषा का संक्षिप्त व्याकरण लिखा था, जो इस समय प्राप्त नहीं है । इसी के आधार पर १३वीं शताब्दी में अनुभूतिस्वरूपाचार्य ने 'सारस्वतप्रक्रिया' लिखी थी। इस पर अनेक टीकाएँ लिखी गयी थीं; यथा-अमृतभारती की सुबोधिनी, पुंजराज की प्रक्रिया, सत्यप्रबोध की दीपिका, माधव की सिद्धान्तरत्नावली, चन्द्रकीर्ति की दीपिका इत्यादि । भट्टोजिदीक्षित के शिष्य रघुनाथ ( १६०० ई० ) ने इस पर लघुभाष्य भी लिखा था। सारस्वत-सम्प्रदाय में मूल सूत्रों के दूसरे रूपों को प्रकट करने वाले ग्रन्थ भी लिखे गये; यथा-रामाश्रम ( १७वीं शताब्दी ई० ) की सिद्धान्तचन्द्रिका । इस पर लोकेशकर ने तत्त्वदीपिका ( सं० १७४१ ) तथा सदानन्द ने सुबोधिनी टीकाएँ लिखी थीं। सम्प्रति कई प्रदेशों में सारस्वत-प्रक्रिया तथा सिद्धान्तचन्द्रिका का पठन-पाठन होता है।
(९) मुग्धबोध-बोपदेव ( १३०० ई० ) ने मुग्धबोध नामक अत्यन्त संक्षिप्त व्याकरण लिखकर एक नये व्याकरण का प्रवर्तन किया था। ये देवगिरि के निवासी
१. हैमबृहद्वृत्ति, भाग १, भूमिका पृ० ( को )।