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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
___ चन्द्र गोमी के व्याकरण में संज्ञा-शब्दों का व्यवहार नहीं किया गया है। सम्प्रति इसमें ६ अध्याय तथा ३१०० सूत्र मिलते हैं। स्वर तथा वैदिक प्रकरण इसमें नहीं मिलते, किन्तु लौकिक भाग के सूत्रों से यह सिद्ध होता है कि ये दोनों प्रकरण भी इसमें अवश्य रहे होंगे। चन्द्रगोमी ने अपने चान्द्रसूत्रों पर स्वोपज वृत्ति के अतिरिक्त धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र, लिङ्गानुशासन, उपसर्गवृत्ति, शिक्षासूत्र तथा कोष भी लिखा था । कुछ ग्रन्थ देवनागरी संस्करण में प्राप्त हैं, किन्तु कुछ अभी भी तिब्बती में है । महायान बौद्धों में चान्द्रव्याकरण बहुत प्रचलित था। चान्द्रव्याकरण के सूत्र पाणिनि से मिलते-जुलते हैं । काशिका में कई स्थानों पर चन्द्र की असंगतियों का उत्तर दिया गया है, किन्तु इसका नाम नहीं लिया गया । चान्द्रव्याकरण का प्रचार बौद्धों से भिन्न लोगों में नहीं हो सका।
( ३ ) जैनेन्द्र-पूज्यपाद देवनन्दि ( या सिद्धनन्दि ) ने ५वीं शती ई० में जैनेन्द्रशब्दानुशासन नामक ग्रन्थ लिखा था, जो अष्टाध्यायी के आदर्श पर है । सम्प्रति इसके दो संस्करण मिलते हैं-औदीच्य ( ३००० सूत्र ) तथा दाक्षिणात्य ( ३७०० सूत्र ) । इनमें औदीच्य संस्करण ही मूल ग्रन्थ मालूम पड़ता है, क्योंकि दाक्षिणात्य संस्करण में अनेक वार्तिकों को भी सूत्र का रूप दिया गया है। एकशेष-वृत्ति का अभाव इसकी विशेषता है । इस व्याकरण में अल्पाक्षर संज्ञाओं का ( पाणिनि के घ, घु, टि के आदर्श पर ) प्रयोग है । इस ग्रन्थ पर अभयनन्दि ( ८०० ई० ) ने महावृत्ति नाम से एक विशद व्याख्या लिखी थी। प्रभाचन्द्र ( १००० ई० ) ने भी मूल ग्रन्थ पर बहुत अधिक विस्तृत व्याख्या लिखी थी, किन्तु यह सम्पूर्ण उपलब्ध नहीं होती। इन वृत्तियों के अतिरिक्त प्रक्रिया-ग्रन्थ भी इसमें लिखे गये; यथा— श्रुतकीर्ति ( १२वीं शती ) की महावस्तु तथा पं० वंशीधर ( २०वीं शती ) की जैनेन्द्रप्रक्रिया। ये ग्रन्थ औदीच्य संस्करण पर हैं, जिसका प्रचार अभी भी जैनों के बीच है। ___जैनेन्द्र-व्याकरण के दाक्षिणात्य संस्करण का वास्तविक नाम 'शब्दार्णव' है, जिसे गुणनन्दि ( ९०० ई० ) ने संस्कृत किया था, क्योंकि इस पर टीका लिखने वाले सोमदेवसूरि अपनी टीका को गुणनन्दि-विरचित शब्दार्णव में प्रवेश करने के लिए नौका मानते हैं । सोमदेव की टीका शब्दार्णवचन्द्रिका ( १२०५ ई० ) कहलाती है । काशी की सनातन जैन ग्रन्थमाला में यह प्रकाशित है।
( ४ ) जैन शाकटायन-आचार्य पाल्यकीति ( ८१४.६७ ई० ) ने अभिनव जैन शाकटायन व्याकरण का प्रवर्तन किया था। इस व्याकरण ग्रन्थ (शब्दानुशासन) में ४-४ पादों वाले ४ अध्याय हैं, जिन्हें सिद्धि के नाम से अधिकरणों में विभक्त किया गया है । इसमें सूत्रों का क्रम प्रक्रियानुसारी रखा गया है । सूत्र के साथ ही इष्टियाँ तथा उपसंख्यान भी हैं, पृथक् नहीं । गणपाठ, धातुपाठ, लिंगानुशासन तथा उणादिइन चारों को छोड़कर समस्त व्याकरण-कार्य इस वृत्ति में ही हैं। सूत्रों की संख्या प्रायः ३२०० है । इसके रचयिता पाल्यकीति जैन राष्ट्रकूट राजा अमोघवर्ष ( ९वीं
१. यक्षवर्मा, शाकटायन वृत्ति, मंगलाचरण ११ ।