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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
पश्यति तथा पचति के द्वारा क्रमशः ये काल अभिव्यक्त होते हैं । ' अस्ति' आदि क्रियाओं के साथ भी ऐसी बात देखी जा सकती है; जैसे – 'अभूत्' कहने से अतीतकालिक सत्ता, 'भविष्यति' कहने से भविष्यत्कालिक तथा 'अस्ति' कहने से वर्तमानकालिक सत्ता का बोध होता है । अतएव क्रियान्तर के धर्म का सामान्य समन्वय दिखलाकर भी 'अस्ति' आदि की क्रियात्मकता सिद्ध हो सकती' | पतंजलि ने यह भी दिखलाया है कि 'करोति' का 'अस्ति' के साथ समानाधिकरण होने में क्यों कठिनाई होती है । स्थिति यह है कि सत्ता का पूर्वज्ञान नहीं होने के कारण हम कि करोति' ऐसा प्रश्न ही नहीं कर सकते कि 'अस्ति' के रूप में कोई प्रतिवचन दे सके । किसी के अस्तित्व- ज्ञान के अनन्तर ही तद्विषयक 'किं करोति' के रूप में किये गये पर्यनुयोग की सार्थकता होती है, उसके सत्ताज्ञान के निमित्त उक्त प्रश्न नहीं हो सकता । यहीं पर दोनों क्रियाओं के परस्पर समानाधिकरण नहीं हो सकने का बीज है । ऐसी बात नहीं कि 'अस्ति' क्रिया ही नहीं है ।
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समन्वय
इससे निष्कर्ष निकलता है कि धातु का लक्षण हम 'क्रियावचन' करें या 'भाववचन' - दोनों में कोई महत्त्वपूर्ण अन्तर नहीं । भाव और क्रिया में यदि अन्तर है तो बस यही कि क्रिया परिस्पन्दात्मक होती है और भाव में यह परिस्पन्द गम्यमान नहीं रहता । अन्यथा दोनों एक ही हैं-भाव का क्रियारूप में तथा क्रिया का भावरूप में ग्रहण होता ही है २ ।
artruate में क्रिया- विचार
भर्तृहरि ने वाक्यपदीय के साधन - समुद्देश ( ३७ ) में कारकों का विवेचन करने के अनन्तर क्रिया का विवेचन क्रिया-समुद्देश ( ३1८) में किया है, जिसमें ६३ कारिकाएँ हैं । उतना विस्तृत विवेचन करना न तो यहाँ संभव है, न अपेक्षित ही । अतः हम यहाँ संक्षेप में इनके क्रिया-विषयक अभिमत का उल्लेख करेंगे, जिससे ऐतिहासिक श्रृंखला विच्छिन्न न हो । यास्क के 'पूर्वापरीभूत' को ध्यान में रखकर भर्तृहरि ने क्रिया के दोनों लक्षणों में ( जो परस्पर पूरक हैं ) क्रम को बड़ा महत्त्व दिया है। उनका प्रथम लक्षण है
'यावत्सिद्धमसिद्धं वा साध्यत्वेनाभिधीयते ।
आश्रितक्रमरूपत्वात् सा क्रियेत्यभिधीयते ॥ - वा० प० ३|८|१
इसका अभिप्राय यह है कि सिद्ध ( भूतकाल में ) हो या असिद्ध ( वर्तमान तथा भविष्यत् कालों में ) - जितना भी फल तथा व्यापार साध्य के रूप में कहा जाता है वह सभी एक विशेष पूर्वापर-क्रम का आश्रय लेने के कारण 'क्रिया' है। यहाँ 'सिद्ध'
१. महाभाष्य तथा कैयट २, पृ० १२४ ।
२. 'परिस्पन्दापरिस्पन्दरूपतया क्रियाभावयोर्भेदेनोपन्यासः' ।
- कैट, वही