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क्रिया तथा कारक
स्वरूप को धारण किये हुए है । सभी धातुओं का तदनुसार 'भवति' के साथ समानाधिकरण-सम्बन्ध हो सकता है। जैसे-किं भवति ? पचति अथवा अस्ति । इसलिए 'भाव' शब्द सभी क्रियाओं का बोध करा सकता है। इससे स्पष्ट है कि धातु भाव का ही बोधक होता है ।
यदि प्रथम व्याख्या के अनुसार धातु को क्रियावाचक मानें तो भी कोई दोष नहीं । कैयट भी भाव को क्रियामात्र के अर्थ में दिखला चुके हैं, क्योंकि भाव और क्रिया एक ही है। अस्ति अथवा सत्ता में भी उपर्युक्त प्रकार से स्वरूपधारणात्मक व्यापार ( क्रिया ) का बोध होता ही है । क्रिया की निष्पत्ति के लिए साधनों ( या कारकों ) की आवश्यकता होती है। ये साधन विभिन्न परिस्थितियों में विभिन्न प्रकार से क्रिया का उपकार करते हैं । पतञ्जलि के अनुसार इन साधनों की प्रवृत्ति का ही एक रूप क्रिया है और साधनों की प्रवृत्तियों में परस्पर भेद रहता है-ओदन का पकाना रोटी के पकाने से भिन्न है। तदनुसार कारकों की प्रवृत्तियाँ अलग-अलग होती हैं । इसी प्रकार 'अस्ति' तथा 'म्रियते' में भेद होता है, क्योंकि दोनों की निष्पत्ति में कारकों की प्रवृत्तियों में भेद होता है। 'अस्ति' में कारक-प्रवृत्ति आत्मधारण के रूप में होती है तो 'म्रियते' में आत्मत्याग के रूप में। प्रत्येक क्रिया की स्थिति में इस प्रवृत्ति-भेद के कारण ही परस्पर अन्तर होता है—'अस्ति' पृथक् है और 'करोति' पृथक । यह सत्य है कि दोनों में सामान्य व्यापार है, किन्तु उनकी निष्पत्ति करने वाले साधनों की प्रवृत्तियाँ इनके व्यापारों को भिन्न बनाती हैं।
सत्ता या स्थिति की क्रियात्मकता अनुमान से प्रतिपाद्य है। कोई पूछता है कि देवदत्त का रोग किस स्थिति में है ? कोई कहता है कि बढ़ रहा है ( वर्धते ), दूसरा कहता है कि घट रहा है ( अपक्षीयते ) और तीसरा बोलता है कि ज्यों का त्यों ( स्थित ) है। यहाँ 'स्थित' कहने पर 'वर्धते' तथा 'अपक्षीयते' की निवृत्ति (निषेध) होती है । क्रिया क्रिया की निवृत्ति करती है किसी की सत्ता का अर्थ है-उसकी वृद्धि या क्षय का निषेध । अतः इस अर्थ में 'अस्ति' का क्रियारूपत्व संगत है। एक दूसरे प्रकार से भी ‘अस्ति' की क्रियात्मकता का प्रतिपादन सम्भव है। यह एक सत्य है कि सभी भूत, भविष्यत् तथा वर्तमान कालों की अभिव्यक्ति क्रिया के बिना नहीं हो सकती, सभी क्रियाओं को कालत्रय की अभिव्यक्ति करते देखते हैं; जैसे-अपाक्षीत,
१. 'आत्मभरणवचनो भवतिः' ।
–कैयट : प्रदीप २, पृ० ११८ २. 'भावशब्दः क्रियामात्रवाची । तेन पचादीनामपि धातुसंज्ञा सिध्यति, अस्तिभवतिविद्यतीनामपि, भावरूपार्थाभिधायित्वात्। -कयट : प्रदीप २, पृ० ११८
३. 'कारकाणां प्रवृत्तिविशेष: क्रिया। अन्यथा च कारकाणि शुष्कोदने प्रवर्तन्ते, अन्यथा च मांसोदने' । —महाभाष्य २, पृ० १२३ । 'शुष्कोदने मन्दप्रयत्नः प्रवर्तते, मांसोदने तु संवेगेन' ।--कैयट
४. कैयट, वही।