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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
कारण रहा हो, व्याकरण से सम्बद्ध तथा असम्बद्ध शास्त्रों में भी इसके विभिन्न अंगों की इतनी अधिक चर्चा है कि पूर्ण अनुसन्धान करने पर केवल उनका इतिहास ही लिखा जाय ( विषय-विवेचन नहीं भी हो ) तो पूरे ग्रन्थ की सामग्री प्राप्त होगी। व्याकरण के अन्यतम अंग के रूप में कारक की चर्चा भी कई शास्त्रों में हुई है। हम यहाँ वेदान्त, मीमांसा तथा न्याय-इन दर्शनों में प्रवृत्त कारक-चर्चा का संक्षिप्त निदर्शन करते हैं।
अद्वैतवेदान्त ___ ब्रह्मसूत्र के समन्वयाधिकरण ( १।१।४) पर भाष्य करते हुए शंकराचार्य अनित्य द्रव्य के चार भेदों की चर्चा करते हैं-उत्पाद्य, विकार्य, आप्य तथा संस्कार्य । वे सिद्ध करते हैं कि नित्य तथा शुद्ध ब्रह्मस्वरूप मोक्ष इनमें से किसी के रूप में नहीं है, अन्यथा उसके अनित्य होने का प्रसंग आ जायेगा। उक्त भेद वस्तुतः कर्मकारक के मीमांसा-स्वीकृत भेद हैं । व्याकरण में संस्कार्य छोड़कर अन्य कर्मभेद स्वीकार्य हैं ।
इसी प्रकार 'कर्मकर्तव्यपदेशाच्च' (ब्र० सू० १।२।४ ) के भाष्य में उपनिषद् वाक्य का उद्धरण देकर शंकर उपास्य आत्मा का श्रौत निर्देश प्राप्य ( कर्म ) के रूप में तथा उपासक जीव का प्राप्तिकर्ता के रूप में दिखलाते हैं। इस स्थल का उद्धरण कौण्डभट्ट ने वैयाकरणभूषण में भी सम्बद्ध प्रसंग में दिया है । ब्रह्मसूत्र के द्वितीयाध्याय में एक अधिकरण का ही नाम कत्रधिकरण ( २।३।३३-३९ ) है, जिसमें विभिन्न श्रुतिवाक्यों में बुद्धि, विज्ञानादि से भिन्न जीव के कर्तृत्व की उपपत्ति की गयी है । इसी प्रसंग में विज्ञान के कर्तत्व ( जो बौद्धों को अभिमत है ) के निरसनार्थ विज्ञान में करण विभक्ति के निर्देश का उदाहरण शंकर ने दिखलाया है कि जो करण के रूप में श्रुतिवाक्यों में निर्दिष्ट है उसे कर्तृरूप में नहीं रखा जा सकता। ब्रह्मसूत्र के संज्ञामूर्तिक्लप्त्यधिकरण ( २।४।२० ) में भी जीव के कर्तृत्व में जगत् की नाम-रूपव्याकृति की उपपत्ति हुई है । यहाँ वाचस्पति मिश्र ने भी कर्ता तथा करण का संक्षिप्त विवेचन किया है, जिसका उद्धरण लघुमञ्जूषा की कला-टीका ( पृ० १२४९ ) में दिया गया है।
वाचस्पति ने सांख्यकारिका ( ३२ ) की व्याख्या में करण की कारकता तथा उसके व्यापार का निरूपण किया है- 'कारकविशेषः करणम् । न च व्यापारावेशं विना कारकत्वमिति व्यापारावेशमाह-तदाहरणधारण प्रकाशकरम्'। वैसे इन दर्शनों में व्याकरण के सामान्य प्रश्नों की अनेकत्र चर्चा है, किन्तु कारक-विषयक सूचनाएँ कम हैं।
१. वैयाकरणभूषण, पृ० १०७ । २. 'तथा ह्यन्यत्र बुद्धिविवक्षायां विज्ञानशब्दस्य करणविभक्तिनिर्देशो दृश्यते' ।
-शाङ्करभाष्य २।३।३६