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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन अपनी शब्दशक्तिप्रकाशिका में किया है। सुबर्थ के प्रकरण में कारकार्था तथा इतरार्था ( उपपद ) विभक्तियों का भेद करके जगदीश ने विशद कारक-विवेचन किया है । यह ग्रन्थ कारिकाओं तथा उनकी व्याख्या के रूप में लिखा गया है । यह कातन्त्रसम्प्रदाय मात्र में सीमित नहीं रह सका; पाणिनि-तन्त्र में भी इसका व्यापक अध्ययन होता रहा है। __जगदीश के शिष्य गदाधर भट्टाचार्य ( १६५० ई० ) ने अपना सुप्रसिद्ध ग्रन्थ व्युत्पत्तिवाद लिखा, जिसमें शाब्दबोध के उपकारक के रूप में प्रथमादि विभक्तियों के अर्थों का विस्तृत विश्लेषण करते हुए उनके अन्तर्गत कारकों का भी विशद विचार किया है । स्थापनाओं की उपपत्ति के लिए पाणिनि के सूत्रों का इसमें स्थान-स्थान पर उद्धरण दिया गया है । न्यायशास्त्र में इसकी अप्रतिम प्रामाणिकता है। इसके अतिरिक्त भी गदाधर ने कारकवाद ( या कारक-निर्णय ) नाम का एक ग्रन्थ लिखा था, जिस पर रामरुद्र तर्कवागीश ( १७०० ई० ) की टीका भी है । मैथिल नैयायिकों की परम्परा में विशिष्ट स्थान रखने वाले गोकुलनाथ ने पदवाक्यरत्नाकर में विभक्त्यर्थ का विशद विश्लेषण करते हुए कारक-विभक्ति तथा उपपद-विभक्ति का पृथक्-पृथक् निरूपण किया । इनका ग्रन्थ कारिका की व्याख्या के रूप में है। गिरिधर भट्टाचार्य ने भी ( १७वीं शती ई०) विभक्त्यर्थ-निर्णय नामक एक दीर्घकाय ग्रन्थ विभक्ति के अर्थों का न्यायमत से विचार करने के लिए लिखा। व्युत्पत्तिवाद की गद्यात्मक शैली में लिखा गया यह ग्रन्थ एतद्विषयक सभी ग्रन्थों में बड़ा है। इसमें कौण्डभट्ट का उल्लेख किया गया है । इन सभी न्यायग्रन्थों का प्रभाव वैयाकरणों के विवेचनों पर स्पष्टतः परिलक्षित होता है। १८वीं शताब्दी में जयराम भट्टाचार्य ने कारकवाद ( या कारकविवेक ) नामक लघु पुस्तक लिखी । वेंकटेश्वर प्रेस, बंबई से प्रकाशित कारकवाद प्रायः भवानन्द के कारकचक्र का ही अनुवाद ( पुनरुक्ति ) मात्र है।
इनके अतिरिक्त भी कई अज्ञात ग्रन्थ होंगे, जो कारक-विषय से सम्बन्ध रखते होंगे । आज संस्कृत के अनेक ग्रन्थ लुप्त हैं । जनता की रुचि जैसे-जैसे न्याय-व्याकरणादि विषयों से हटती गयी, ग्रन्थों का प्रचार समाप्त होता गया और अनेक प्रामाणिक सन्दर्भ-ग्रन्थ नष्ट हो गये । कितने ग्रन्थ अभी अप्रकाशित हैं और समय की गति देखते हुए अनुमान होता है कि वे प्रकाशित होंगे भी नहीं।