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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
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जिससे इसका समय इन कवियों के बाद होना चाहिए । युधिष्ठिर मीमांसक' काशिका ( ७।४।९३ ) में दुर्गवृत्ति का खण्डन ध्वनित मानते हैं। इससे इसका समय ६०० ई० के निकट प्रतीत होता है। इस दुर्गवृत्ति पर एक दूसरे दुर्गसिंह ( ९वीं शताब्दी) ने टीका लिखी थी। इनके अतिरिक्त उग्रभूति (११वीं शताब्दी ), त्रिलोचनदास ( ११०० ई०, पञ्जिका टीका ), उमापति (१२०० ई० ), वर्धमान (१३वीं शताब्दी ), काश्मीर-निवासी जगद्धरभट्ट ( १३०० ई०, बालबोधिनीटीका ) इत्यादि ने मूल दौर्गसिंही वृत्ति पर टीकाएँ लिखी थीं। इनमें बंगाल में पञ्जिकाटीका का बहुत प्रचार हुआ। त्रिविक्रम ने ( १३वीं शताब्दी ) इस पर 'उद्योत' तथा सुषेण कविराज ( १७वीं शताब्दी ) ने 'कविराजी' व्याख्या लिखी थी। पिछली व्याख्या में न्यायशास्त्रीय दृष्टि का परिचय मिलता है।
श्रीपतिदत्त (११-१२वीं शती ई० ) ने मूल कातन्त्र में परिशिष्ट जोड़ा था, जिस पर अपनी वृत्ति भी लिखी थी। कातन्त्र-परिशिष्ट की अनेक टीकाएँ समय-समय पर लिखी गयीं । पाणिनीय व्याकरण के समान कातन्त्र में भी धातुपाठ, उणादि, परिभाषा, लिङ्गानुशासन आदि तो थे ही; समास, कारक इत्यादि विषयों पर विशेष विचार करने वाले प्रकरण-ग्रन्थ भी थे । इस सम्प्रदाय में प्रतिपादित कारक-प्रकरण के आधार पर रभसनन्दि ने कारकसम्बन्धोद्योत नामक एक छोटी-सी पुस्तक लिखी, जिसमें १५ कारिकाओं की सुविशद व्याख्या की गयी है । इसे ही षट्कारक-कारिका टीका भी कहते हैं । इसके लेखक का समय ९०० ई० तथा ११०० ई० के बीच है। सुप्रसिद्ध नैयायिक जगदीश तर्कालंकार कातन्त्र-सम्प्रदाय के ही अध्येता थे, जिन्होंने अपनी 'शब्दशक्तिप्रकाशिका' में इसके सूत्रों के उद्धरण दिये हैं। इस प्रकार पाणिनि के आदर्श पर प्रवर्तित कोतन्त्र-सम्प्रदाय सर्वाङ्गपूर्ण है।
(२) चान्द्र–पाणिनि की अष्टाध्यायी के आदर्श पर चन्द्रगोमी ने चान्द्रव्याकरण की रचना की। चन्द्र का उल्लेख भर्तृहरि ने वाक्यपदीय ( २।४८३ ) में महाभाष्य के उद्धारक में रूप में किया है। कल्हण की राजतरंगिणी के अनुसार काश्मीरनरेश अभिमन्यु की आज्ञा से चन्द्राचार्य ने काश्मीर में महाभाष्य का प्रचार किया था। चन्द्र गोमी के उणादिसूत्रों में ब, व का भेद नहीं होने के कारण कुछ लोग इन्हें बंगाल का मूल निवासी मानते हैं । अभिमन्यु के काल के विषय में असंगतियाँ हैं, क्योंकि राजतरंगिणी के अनैतिहासिक भाग में इसका उल्लेख है। चन्द्रगोमी भर्तहरि के कुछ ही पूर्व रहे होंगे। सम्भवतः इनका आविर्भावकाल १००-२०० ई० के बीच हो । अधिकांश विद्वान् इन्हें पांचवीं शताब्दी में मानते हैं । चन्द्र बौद्ध विद्वान् थे।
१. सं० व्या० शा० इति० १, पृ० ५१४ ।
2. K. V. Abhyankar, A Dictionary of Sanskrit Grammar, p. 107-8.
३. प्रकाशन-राजस्थान पुरातत्त्वान्वेषण मन्दिर, जयपुर, २०१३ वि० । ४. A Dictionary of Sanskrit Grammar, p. 140.