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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास सभी समस्याओं का अत्यन्त पाण्डित्यपूर्ण गूढ़ विवेचन मञ्जूषा में उपलब्ध है । न्याय तथा मीमांसा के मतों का तो इसमें खण्डन हुआ ही है; दीक्षित, कौण्डभट्ट आदि 'स्ववंश्य' वैयाकरणों के मत भी इसमें निरस्त हुए हैं। वास्तव में नागेश के प्रखर पाण्डित्यप्रकर्ष का प्रकाशन मञ्जूषा में ही है।
लघुमञ्जूषा पर दो प्राचीन टीकाएँ हैं -एक तो वैद्यनाथ पायगुण्ड ( बालम्भट्ट ) की कला तथा दूसरी दुर्बलाचार्य ( कृष्णमित्र ) की कुञ्जिका। इन दोनों टीकाओं के साथ सम्पूर्ण लघुमञ्जूषा का एकमात्र प्रकाशन काशी संस्कृत सीरिज में क्रमशः १९१५ ई० से १९२५ ई० के बीच हुआ। आरम्भिक अंश ( तात्पर्य-निरूपण तक) पर पं० सभापतिजी ने बड़ी अच्छी व्याख्या लिखी थी, जिसके कई संस्करण हुए हैं।
प्रचार की दृष्टि से नागेश की परमलघुमञ्जूषा अधिक महत्त्वपूर्ण है। व्याकरण के अर्थपक्ष ( दर्शन ) को लेकर इतनी छोटी पुस्तक संस्कृत में नहीं लिखी गयी, जिससे आरम्भिक जिज्ञासा का उपशम हो। कई परीक्षाओं में पाठ्य होने के कारण इस पर आधुनिक काल में अनेक टीकाएँ लिखी गयीं, जिनमें सदाशिव शास्त्री की अर्थदीपिका, वंशीधरमिश्र की वंशी ( हिन्दी अनुवाद के साथ; १९५७ ई० ) तथा कालिकाप्रसाद शुक्ल की ज्योत्स्ना ( १९६१ ई० ) प्रमुख हैं। परमलघुमञ्जूषा में प्रायः लघुमञ्जूषा का ही संक्षेप है । संक्षेप के प्रति अधिक आग्रह होने के कारण कई स्थानों पर विषय का नये ढंग से निरूपण है । तदनुसार लघुमञ्जूषा में विभक्ति के आधार पर कारकों का विवेचन है, किन्तु परमलघुमञ्जूषा अर्थपक्ष में उपयोगी कारकमात्र का विवेचन करती है; उपपद विभक्तियों की इसमें चर्चा भी नहीं है। इसमें कारकों के बाद नामार्थ का विचार हुआ है, जब कि लघुमञ्जूषा में क्रम इसके ठीक विपरीत है।
नागेश के साथ ही पदार्थ की मौलिक मीमांसा समाप्तप्राय हो जाती है, क्योंकि इनके ग्रन्थों में उक्त चिन्तन विवेचना की चरम कोटि पर आसीन है । इनके बाद के टीकाकारों तथा परिष्कारों में विवेचना के बाह्य-पक्ष ( formal side ) का विश्लेषण अधिक हुआ, मौलिक विषय का नहीं । यह मान लिया गया कि विषय विवेचन अन्तिम बिन्दु ( saturation point) पर पहुंच चुका है तथा इससे आगे जाने का अवकाश अब बहुत कम है। इन ग्रन्थों को समझना ही जीवन की एक अनुपम उपलब्धि मानी जाने लगी।
अन्य व्याकरण-सम्प्रदाय पाणिनि से पूर्ववर्ती वैयाकरणों का नामग्राह उल्लेख किया जा चुका है, किन्तु साकल्यरूप से उनका कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता । पाणिनि-प्रभृति आचार्यों ने यत्र-तत्र तुलनार्थ उनके मतों की चर्चा की है । परम्परा के द्वारा कुछ मान्य वैया. करणों का स्मरण अत्यन्त आदर के साथ किया जाता है । यहाँ तक कि पाणिनि के सदृश अत्यन्त वैज्ञानिक कृतिकार की गणना भी उनके समक्ष नहीं है। पाणिनि को गोष्पद जल या कुशाग्र से निकले जलबिन्दु के समान माना गया है