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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
२७ शताब्दी ) के समकालिक थे । अमोघवर्ष का समय सं० ८७१-९२४ वि० ( ८१४८६७ ई० ) के बीच है। इन्हीं की सभा में पाल्यकीर्ति रहा करते थे। आश्रयदाता के नाम पर इन्होंने अपनी वृत्ति का ही नाम 'अमोघा' रखा है। यह वृत्ति अतिविस्तृत है।
'अमोघा' पर प्रभाचन्द्र ( १००० ई.) ने न्यास तथा यक्षवर्मा ने चिन्तामणि नामक टीका लिखी । यक्षवर्मा अपनी वृत्ति का महत्त्व बतलाते हैं कि इसके अभ्यास से बालक तथा स्त्रियाँ भी एक वर्ष में समस्त वाङ्मय को समझने लगेंगी । शाकटायन शब्दानुशासन को सरल करके अभयचन्द्र, भावसेन तथा मुनि दयालपाल ने ( १०२५ ई० ) अपने प्रक्रिया-ग्रन्थ लिखे ।
(५) सरस्वतीकण्ठाभरण –धारानरेश महाराज भोजदेव ( राज्यकाल १०२८६३ ई० ) ने इस नाम का एक बृहत् शब्दानुशासन लिखा, जिसका आरम्भ कारकप्रकरण से ही होता है। भोज संस्कृत के महान् उद्धारक तथा विद्यानुरागी नरेश थे, जिनके आश्रय में अनेक कवि तथा पण्डित रहते थे। सरस्वतीकण्ठाभरण के नाम से इनके दो ग्रन्थ हैं-एक व्याकरण का, दूसरा काव्यशास्त्र का । व्याकरण में ८ बड़े-बड़े अध्याय हैं, जो ४-४ पादों में विभक्त हैं । सूत्रों की कुल संख्या ६४११ है । प्रथम सात अध्यायों में संस्कृत भाषा का शब्दानुशासन है और अन्तिम अध्याय में वैदिक संस्कृत का। इसकी विशेषता यह है कि इसमें व्याकरण के सहायक भाग-परिभाषा, लिंगानुशासन, उणादि तथा गणपाठ भी सन्निविष्ट हैं। ये भाग पाणिनि-तन्त्र के समान पृथक् नहीं है, केवल धातुपाठ का अन्तर्भाव नहीं हो सका है। अतः ग्रन्थ का आकार बहुत बड़ा हो गया है । इसीलिए इसका प्रचार भी नहीं हो सका। इस ग्रन्थ के आधार पाणिनि तथा चान्द्र व्याकरण हैं। इस पर दण्डनाथ नारायण ने हृदयहारिणी-व्याख्या ( १२वीं शताब्दी ), कृष्णलीलाशुक ( १३०० ई.) ने पुरुषकार तथा रामसिंह ने रत्नदर्पण व्याख्या लिखी है।
(६ ) हैम व्याकरण-इसके प्रवर्तक सुप्रसिद्ध जैन विद्वान् हेमचन्द्रसूरि थे, जिन्होंने सिद्धहैम-शब्दानुशासन नामक एक सर्वांगपूर्ण व्याकरण लिखा था। हेमचन्द्र का जन्म कार्तिक पूर्णिमा सं० ११४५ वि० में तथा निर्वाण ८४ वर्ष की आयु में १२२९ वि० में हुआ था ( १०८८-११७२ ई० )। इनके गुरु चन्द्रदेवसूरि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के आचार्य थे। हेमचन्द्र का जन्म गुजरात के अहमदाबाद जिले में हुआ था।
१. 'ख्याते दृश्ये' ( शाक० सू० ४।३।२०७ ) सूत्र की अमोघावृत्ति में दो दृष्ट घटनाओं के उदाहरण लङ्लकार में दिये गये हैं- 'अरुणद् देवः पाण्ड्यम् । अदहत् अमोघवर्षोऽरातीन्' । २. मंगलाचरण १२
'बालाबलाजनोऽप्यस्याः वृत्तेरभ्यासमात्रतः । समस्तं वाङ्मयं वेत्ति वर्षेणकेन निश्चयात्' ।