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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
नाम से लिखी थी, जो काशी से प्रकाशित है । इनके अतिरिक्त भी कैयट के प्रदीप पर इन्होंने 'प्रदीपोद्योतन' नामक टीका लिखी थी, जिसका मात्र प्रथम पाद ही मुद्रित है । वेदान्त, मीमांसा तथा न्याय में भी अन्नम्भट्ट के ग्रन्थ प्रसिद्ध हैं ।
विश्वेश्वरसूरि
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विश्वेश्वरसूरि ने भट्टोजिदीक्षित के शब्दकौस्तुभ के आदर्श पर अष्टाध्यायी की एक अत्यन्त विशद व्याख्या लिखी, जिसका नाम ' वैयाकरणसिद्धान्तसुधानिधि' है । यह प्रथम तीन अध्यायों पर ही उपलब्ध है । ग्रन्थकार की मृत्यु ३२-३४ वर्ष की अवस्था में हो गयी थी' । विश्वेश्वर ने भट्टोजिदीक्षित का इस ग्रन्थ में अनेकशः उल्लेख किया है, किन्तु शब्दरत्न या उसके लेखक की कहीं चर्चा भी नहीं की। इससे इन्हें हरिदीक्षित के पूर्ववर्ती ( १६०० ई० में ) मानना उचित है । कृष्णमाचार्य अपने इतिहास ( पृ० ७६६ ) में इनका समय १८वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना है । विश्वेश्वर ने इस ग्रन्थ में अपने समय तक के सभी सम्बद्ध विचारों का मन्थन किया है | न्यायशास्त्रीय सिद्धान्तों के खण्डन में कहीं-कहीं लेखक ने नव्यन्याय की शब्दावली भी अपनायी है । इसके प्राप्तांश का प्रकाशन काशी- संस्कृत ग्रन्थमाला में हुआ है ।
नागेशभट्ट के ग्रन्थ
शेषवंश की शिष्य - परम्परा में नागेश भट्ट के रूप में एक अत्यन्त प्रतिभाशाली विद्वान् का आविर्भाव हुआ। जैसा कि ऊपर कहा जा चुका है नागेश भट्टोजिदीक्षित के पौत्र हरिदीक्षित के शिष्य थे। इनके पिता का नाम शिवभट्ट तथा माता का सतीदेवी था । इनका दूसरा नाम नागोजि भट्ट भी था । इनकी कोई सन्तान नहीं थी । इनके प्रधान शिष्य वैद्यनाथ थे, जिनके पुत्र बालशर्मा ने कोलब्रुक के आदेशानुसार प्राय: १८०० ई० में धर्मशास्त्रसंग्रह लिखा था । नागेश इससे बहुत पूर्व रहे होंगे। एक दूसरी सूचना १७१४ ई० की है, जब जयपुर के महाराज सवाई जयसिंह ने अश्वमेध यज्ञ के संचालनार्थ इन्हें बुलाया था, किन्तु काशी में क्षेत्र- संन्यास लेने के कारण इन्होंने महाराज का निमन्त्रण स्वीकार नहीं किया था मञ्जरी पर नागेश की टीका का एक हस्तलेख सं० १७६९ वि०
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भानुदत्त की रस
(
१७१२ ई० ) का
है । इन प्रमाणों के आधार पर नागेशभट्ट का कार्यकाल १७०० से १७५० ई० तक माना जा सकता है। प्रयाग के निकटवर्ती शृंगवेरपुर के राजा रामसिंह से नागेश की वृत्ति मिलती थी ।
१. सं० व्या० शा ० इतिहास १, पृ० ४५३ । २. लघुशब्देन्दुशेखर का अन्तिम श्लोक - 'शब्देन्दुशेखरः पुत्रो मञ्जूषा चैव कन्यका । स्वमतौ सम्यगुत्पाद्य शिवयोरपितो मया ॥ ३. ल० श० शे० का आरम्भ - 'वङ्गवेरपुराधीशाद् रामतो लब्धजीविकः' ।