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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
तथा उसकी टीकाओं का इसमें एकाधिक वार खण्डन हुआ है। भट्टोजिदीक्षित का विशेष ध्यान 'यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्' की उपपत्ति पर है। ये प्राचीन ग्रन्थकारों के विपरीत अन्य वैयाकरणों के मतों का तुलना के लिए कहीं उल्लेख नहीं करते। फलस्वरूप तुलनात्मक ज्ञान की अपेक्षा खण्डनात्मक ज्ञान ही दीक्षित के पाठकों को अधिक प्राप्त होता है। यही प्रक्रिया इनके अनुवर्ती ग्रन्थकारों में भी है, जो सभी का खण्डन करके अपने सिद्धान्त की स्थापना करते हैं। कई मतों की समानान्तर प्रवृत्ति के रूप में विकल्प नहीं छोड़ते । प्रौढमनोरमा पर हरिदीक्षित ने वृहच्छब्दरत्न तथा लघुशब्दरत्न नामक दो व्याख्याएँ लिखी थीं । प्रसिद्धि है कि हरिदीक्षित के शिष्य नागेश ने पिछली टीका स्वयं लिख कर गुरु के नाम से प्रसिद्ध की थी, किन्तु इसका कोई प्रमाण नहीं है। इस लघुशब्दरत्न पर आधुनिक काल में लिखी गयी 'ज्योत्स्ना' नाम की सुप्रसिद्ध व्याख्या है।
प्रौढमनोरमा का खण्डन दीक्षित के गुरुवंश से ही सम्बद्ध तीन विद्वानों; यथा-- वीरेश्वर के पुत्र, चक्रपाणिदत्त तथा पण्डितराज जगन्नाथ ने किया था। इनमें प्रेरणा देनेवाले वीरेश्वर ही थे । चक्रपाणिदत्त के खण्डन का उल्लेख शब्दरत्न में हुआ है । जगन्नाथ कृत खण्डन ( कुचदिनी ) का केवल पञ्चसन्धिपर्यन्त भाग प्राप्त हुआ है, जो प्रकाशित है । इसके आरम्भ में वीरेश्वर के पुत्र के द्वारा मनोरमा-खण्डन की चर्चा हुई है। जगन्नाथ रसगंगाधर, भामिनीविलास, गंगालहरी इत्यादि काव्यशास्त्रीय लक्ष्य-लक्षण ग्रन्थों के लेखक के रूप में अति प्रसिद्ध हैं।
(४) वैयाकरणसिद्धान्तकारिका-७४ अनुष्टुप श्लोकों में वाक्यपदीय के ढंग पर लिखी गयी इस पुस्तिका में दीक्षित ने सूत्रात्मक संक्षिप्तता के साथ धात्वर्थ, लकारार्थ, सुबर्थ, नामार्थ, समासशक्ति, शक्ति, नत्रर्थ, निपातार्थ, भावप्रत्ययार्थ, देवताप्रत्ययार्थ, एकत्वसंख्या, संख्याविवक्षा, अव्ययप्रत्ययार्थ तथा स्फोट का निर्णय किया है। चूंकि इन्हीं की व्याख्या के रूप में कौण्डभट्ट ने वैयाकरणभूषण नामक ग्रन्थ लिखा है, इसलिए इन कारिकाओं को 'भूषणकारिका' भी कहा जाता है। सुप्-विभक्तियों के 'विषय में दीक्षित ने एकमात्र कारिका दी है--
'आश्रयोऽवधिरुद्देश्यः सम्बन्धः शक्तिरेव वा। यथायथं विभक्त्याः सुपां कर्मति भाष्यतः' ॥ (का० २४ )
वैयाकरणभूषण कौण्डभद्र भट्रोजिदीक्षित के अनुज के पुत्र थे। अतः दीक्षित से एक पीढ़ी पश्चात् १६२० ई० में विद्यमान रहे होंगे । इन्होंने भी शेषकृष्ण के पुत्र वीरेश्वर ( दूसरा नाम सर्वेश्वर ) से विद्याध्ययन किया था। इन्होंने कारिकाओं पर वैयाकरणभूषण तथा भूषणसार नाम से दो व्याख्या-ग्रन्थ बृहत् तथा लघु संस्करणों के रूप में लिखे थे । बृहद्-भूषण में न्याय तथा मीमांसा के सिद्धान्तों का अनेक स्थानों पर उल्लेख करके खण्डन हुआ है। इसके विषय-विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि