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संस्कृत-व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
बीच स्थिर होता है। पण्डितराज जगन्नाथ की 'मनोरमा-कुचर्दिनी' टीका के अनुसार दीक्षित ने शेषकृष्ण से बहुत दिनों तक विद्याभ्यास किया था, किन्तु उनका देहान्त हो जाने पर उनके प्रक्रिया-प्रकाश की निन्दा मनोरमा में की थी, जिसके खण्डनार्थ जगन्नाथ ने उक्त कुचदिनी लिखी थी। मनोरमा का खण्डन स्वयं वीरेश्वर ( शेषकृष्ण के पुत्र ) ने तो किया ही था; चक्रपाणिदत्त से भी यही काम कराकर पितृ-ऋण का विधिवत् शोध किया। प्रतीत होता है कि भट्टोजिदीक्षित उग्र तथा असहिष्णु स्वभाव के विद्वान् थे । दीक्षित का वंशवृक्ष इस प्रकार है
लक्ष्मीधर
रङ्गोजिभट्ट
भट्टोजिदीक्षित
कोण्डभट्ट
भानुजिदीक्षित
वीरेश्वर
हरिदीक्षित रङ्गोजिभट्ट भट्टोजिदीक्षित के अनुज थे। ये लोग महाराष्ट्र के मूल निवासी थे, किन्तु विद्याप्रसंग से काशी में बस गये थे।
भट्रोजिदीक्षित ३४ ग्रन्थों के लेखक माने गये हैं, किन्तु इनके सुविदित ग्रन्थ निम्नलिखित हैं
१) शब्दकौस्तुभ-यह ग्रन्थ अष्टाध्यायी की विशद वृत्ति है जिसमें पतञ्जलि, कैयट था हरदत्त के विचारों का दीक्षित ने अपने शब्दों में सार-संग्रह किया है । यह वृत्ति अम्भ में अधिक विस्तृत है, किन्तु क्रमशः छोटी होती गयी है । इस समय यह सम्पूर्ण उपलब्ध नहीं होती-आरम्भ के २३ अध्याय तथा चतुर्थ अध्याय ही प्राप्त
१. तुलनीय(क) 'मुनित्रयं नमस्कृत्य तदुक्ती: परिभाव्य च'। (सि० कौ०, मंगल ) (ख) 'वृत्तिकारोक्तिः प्रामादिकी'।
(सि० को०, वैदिकप्रकरण ) (ग) प्रौढमनोरमा, पृ० १४-१५- 'यदप्युपदिश्यतेऽनेनेति करणव्युत्पत्त्या शास्त्रमुपदेशः इति भाष्यवृत्त्यादिषु व्याख्यातं, तथापि तत्प्रौढिवादमात्रम् । करणे घनो दुर्लभत्वात्। (घ) मनोरमाकुचर्दिनी, मंगलश्लोक
___'पण्डितेन्द्रो जगन्नाथ: स्यति गर्व गुरुगृहाम्' । २. वेदभाष्यसार ( भट्टोजिदीक्षितकृत ), भारतीय विद्याभवन, अंग्रेजी भूमिका, पृ० १ टि.३।