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संस्कृत व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
उदाहरण, प्रत्युदाहरण तथा सूत्रों से वाक्य बनाकर पूरा अर्थ देने का क्रम काशिका में बहुत अच्छी तरह से प्रकट हुआ है । अत्यन्त प्रौढ़ता से काशिका के लेखकों ने इसमें प्रत्येक सूत्र की अनुवृत्ति, वृत्ति, उदाहरण तथा प्रत्युदाहरण शंका-समाधान का निर्देश करते हुए दिखलाया है । चन्द्रगोमी के द्वारा चान्द्रव्याकरण में उठायी गयी शंकाओं की भी कतिपय स्थलों पर इसमें विवेचना की गयी है । यही कारण है कि भाष्य में अनुक्त विषयों का भी इसमें प्रतिपादन हुआ है । गणपाठ का समावेश भी काशिका की अपनी विशेषता है । भाष्य में विवेचित, भाषा के बहिरंग-पक्ष से सम्बद्ध, अत्यन्त उपयोगी वार्तिकों को भी काशिका में स्थान मिला है तथा उनकी सूत्रवत् वृत्ति नहीं देने पर भी उदाहरण - प्रत्युदाहरण से उन्हें स्पष्ट किया गया है । कुल मिलाकर काशिका में समस्त उपयोगी तथा सामान्यतया ज्ञातव्य विषयों का संकलन है ।
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काशिका दो लेखकों की संयुक्त कृति है । ये हैं - जयादित्य तथा वामन । काशिका की शैली तथा प्राचीन ग्रन्थकारों के उद्धरणों के आधार पर विद्वानों का अनुमान है। कि प्रथम पाँच अध्यायों पर जयादित्य ने तथा अन्तिम तीन अध्यायों पर वामन ने वृत्ति लिखी थी । इन दोनों का समय अनुमानतः ६५० ई० है, क्योंकि इत्सिंग के निर्देशानुसार ६६१ ई० में जयादित्य की मृत्यु हुई थी । इसके अतिरिक्त जयादित्य ने काशिका ( १।३।२३ ) में किरातार्जुनीय ( ३।१४ ) का एक श्लोकांश उद्धृत किया है - 'संशय्य कर्णाविषु तिष्ठते यः' । भारवि का काल ( प्राय: ५०० ई० ) काशिका की पूर्व कालसीमा है ।
काशिका की दो सुप्रसिद्ध व्याख्याएँ हैं - जिनेन्द्र बुद्धि-कृत न्यास ( या काशिकाविवरणपञ्जिका) तथा हरवत्त-कृत पदमञ्जरी । जिनेन्द्रबुद्धि बौद्धाचार्य थे, जिनका समय काशिका के समीप ही है । न्यास के प्रथम सम्पादक श्रीशचन्द्र चक्रवर्ती ने इसका समय ७२५-७५० ई० माना है । इनकी शैली अत्यन्त सरल तो है ही, काशिका के प्रत्येक शब्द की आवृत्ति करने के कारण काशिका के पाठ - निरूपण में भी इसका बड़ा महत्त्व है । हरदत्त की पदमञ्जरी न्यास की अपेक्षा अधिक प्रौढ़ है । यह कैयट के भाष्य-प्रदीप के आधार पर निर्मित है । हरदत्त का काल प्रायः १०५० ई० है । स्वकथनानुसार ये द्रविड़ प्रदेश के निवासी थे । व्याकरण के अतिरिक्त कल्पसूत्रों पर भी इन्होंने व्याख्या लिखी थी । इनका स्वाभिमान कई स्थानों पर प्रकट हुआ है । काशी से काशिका के साथ-साथ न्यास-पदमञ्जरी दोनों टीकाओं का प्रकाशन अध्यायश: अलग-अलग खण्डों में हुआ है ।
महाभाष्य की व्याख्याओं में समग्ररूप से उपलब्ध सर्वप्रथम व्याख्या कैट
१. ' एवं प्रकटितोऽस्माभिर्भाष्ये परिचयः पर । तस्य निःशेषतो मन्ये प्रतिपत्तापि दुर्लभः ॥ 'प्रक्रिया तर्क गहन प्रविष्टो हृष्टमानसः । हरदत्तहरिः स्वैरं विहरन् केन वार्यते ' ॥
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