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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
१०. पुरुषसमुद्देश (९)। ११. संख्यासमुद्देश ( ३२ ) । १२. उपग्रह( आत्मनेपदपरस्मेपद )समुद्देश ( २७ )। १३. लिङ्गसमुद्देश ( ३१)। १४. वृत्तिसमुद्देश ( ६२७ )। नाम से ही इन समुद्देशों की विषय-वस्तु स्पष्ट है। इस पूरे तृतीय काण्ड पर हेलाराज की सुविस्तृत व्याख्या है, जो कई स्थानों पर भर्तृहरि से मतभेद रखने पर भी वाक्यपदीय को समझने में अत्युपयोगी है। हेलाराज बहुधा भर्तृहरि के तात्पर्य-प्रकाशन में अनेक ग्रन्थों के प्रमाण देते हैं। ____ इन समुद्देशों में सप्तम साधनसमुद्देश है, जिसमें भर्तृहरि के कारक-विषयक विचार प्रकट हुए हैं । भर्तृहरि कारक को शक्ति या साधन मानते हैं, इसलिए इसे साधनसमुदेश कहते हैं । प्रस्तुत अध्ययन के क्रम में इसकी प्रासंगिकता होने के कारण इसकी विषयवस्तु का निरूपण अनिवार्य है। इसके आरम्भ में कारक ( साधन ) का लक्षण देकर विवक्षा की व्यापकता, शक्ति का विश्लेषण, विभक्तियों की संख्या इत्यादि विषयों का ४४ कारिकाओं में विचार किया गया है। तदनन्तर विभिन्न कारकों के अधिकार चलते हैं । प्रत्येक कारक का लक्षण तथा भेद सम्यक् निरूपित है। कारकों के विवेचन का क्रम इस प्रकार है-१. कर्म ( ४५-८९), जिसके प्रसंग में सकर्मक तथा अकर्मक धातुओं का भी संक्षिप्त विचार हुआ है, २. करण ( ९०-१०० ), ३. कर्ता ( १०१-१२४ ), ४, हेतु ( १२५-८ ), ५. सम्प्रदान ( १२९-३५ ), ६. अपादान ( १३६-४७ ), ७. अधिकरण ( १४८-५५ ) । अन्त में शेषाधिकार ( १५६-६२) तथा सम्बोधनादि का संक्षिप्त विचार ( १६४-७ ) किया गया है।
सर्वप्रथम वाक्यपदीय में ही कारक-तत्त्वचिन्तन को दार्शनिक रंग मिला है। पाणिनीय दर्शन के समस्त परवर्ती विचारों का उपजीव्य यही है। यही कारण है कि माधवाचार्य ने सर्वदर्शनसंग्रह में पाणिनि-दर्शन का विवेचन करते हुए वाक्यपदीय के ही उद्धरणों को प्रमाण-रूप से उपन्यस्त किया है ।
काशिकावृत्ति ___ अष्टाध्यायी की प्रायः ४५ वृत्तियों के उल्लेख मिलते हैं । इनमें वामन-जयादित्य के द्वारा रचित काशिका ( ६५० ई० ), शरणदेव ( ११७० ई० ) की दुर्घटवृत्ति, भट्टोजिदीक्षित (१५८० ई०) का शब्दकौस्तुभ, अन्नम्भट्ट (१६०० ई०) की पाणिनीयमिताक्षरा, अप्पयदीक्षित ( १६०० ई० ) का अभी तक अप्रकाशित 'सूत्र-प्रकाश' तथा विश्वेश्वरसूरि-विरचित ( १६०० ई० ) व्याकरण-सिद्धान्तसुधानिधि प्रसिद्ध तथा प्राप्य वृत्तियाँ हैं।
इनमें काशिकावृत्ति सबसे महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि सम्पूर्ण अष्टाध्यायी पर प्राचीनतम प्राप्य वृत्ति है। प्रतञ्जलि ने जो व्याख्यान का लक्षण किया है उसके अनुसार
१. युधिष्ठिर मीमांसक, सं० व्या० शा० इति०, ११४०१-४६२ ।
२. 'न केवलं चर्चापदानि व्याख्यानम्-वृद्धिः, आत्, ऐच् इति । किं तहि ? उदाहरणं, प्रत्युदाहरणं, वाक्याध्याहार इत्येतत्समुदितं व्याख्यानं भवति'।-भाष्य १।१।१