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संस्कृत - व्याकरण में कारकतत्त्वानुशीलन
के व्यासभाष्य में भी वाक्यपदीय ( २।४० ) की ध्वनि होने से व्यास ( ४००-५०० ई० ) के पूर्ववर्ती भर्तृहरि सिद्ध होते हैं । इन प्रमाणों के आधार पर ४०० ई० के निकट भर्तृहरि का आविर्भाव-काल माना जा सकता है। ये ब्राह्मण- मतावलम्बी तथा वसुरात के शिष्य थे ।
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इनकी महाभाष्य-दीपिका का एकमात्र हस्तलेख १।१।५५ सूत्र तक प्राप्त हुआ है, जो बर्लिन के पुस्तकालय में हैं । भर्तृहरि ने सम्भवतः प्रथम तीन पादों पर भाष्य की व्याख्या लिखी थी, जिसके उद्धरण यत्र-तत्र मिलते हैं । किन्तु युधिष्ठिर मीमांसक ने स्वयं भर्तृहरि के तथा अन्य विद्वानों के वचनों से यह प्रमाणित किया है कि आगे भी भाष्य-दीपिका लिखी गयी थी ।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय ने इन्हें दार्शनिकों की पंक्ति में प्रतिष्ठित किया । अपने गुरु वसुरात द्वारा उपदिष्ट व्याकरणागम के आधार पर उन्होंने इसे लिखा था । इसमें तीन काण्ड हैं - ब्रह्म ( आगम ) काण्ड, वाक्यकाण्ड तथा पद ( प्रकीर्ण ) काण्ड | वाक्य तथा पद का मुख्य रूप से विचार करने के कारण इसे उक्त नाम दिया गया । यह पूरा ग्रन्थ अनुष्टुप् छन्द में है । इसके प्रथम एवं द्वितीय काण्डों में क्रमशः १५६ तथा ४८७ कारिकाएँ हैं । इन दोनों काण्डों पर भर्तृहरि की स्वोपज्ञवृत्ति भी है । प्रथम काण्ड पर वृषभदेव की भी व्याख्या है, जिसका प्रकाशन पं० चारुदेव शास्त्री ने किया था । प्रथम दो काण्डों पर पुण्यराज की अनतिविस्तीर्ण किन्तु स्पष्ट व्याख्या प्राप्त है । सम्भवतः हेलाराज ने भी प्रथम दोनों काण्डों की व्याख्या लिखी थी, ४ किन्तु इस समय वह उपलब्ध नहीं है । हेलाराज तथा पुण्यराज दोनों समसामयिक थे ( काल १०५० ई० ) । हो सकता है कि ये एक ही वंश के हों तथा दोनों ने अपना कार्य-विभाग करके व्याख्या लिखी हो ।
वाक्यपदीय का तृतीय काण्ड अनेक विषयों का विचार करता है तथा विषयों के आधार पर ही समुद्देशों में विभक्त है । ये समुद्देश निम्न हैं - १. जातिसमुद्देश ( श्लोक १०६ ) । २. द्रव्यसमुद्देश ( १८ ) । ३. सम्बन्धसमुद्देश ( ८८ ) । ४. भूयोद्रव्यसमुद्देश ( ३ ) । ५. गुणसमुद्देश ( ९ ) । ६. दिक्समुद्देश ( २८ ) । ७. साधनसमुद्देश ( १६७ ) । ८. क्रियासमुद्देश ( ६४ ) । ९. कालसमुद्देश ( ११४ ) ।
1. P. V. Kane, History of Dharmashastra, Vol. V part II, P. XIII.
२. सं० व्या० शा ० इति० १।३५४ |
३. पं० रघुनाथ शर्मा की संस्कृत व्याख्या ( अम्बाकर्त्री ) के साथ सम्पूर्ण वाक्यपदीय ४ खण्डों में वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय से प्रकाशित है ।
४. तृतीय काण्ड की प्रकाश - व्याख्या का मंगलश्लोक
'काण्डद्वये यथावृत्ति सिद्धान्तार्थसतत्त्वतः । प्रबन्धो विहितोऽस्माभिरागमार्थानुसारिभिः' ॥