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कारक-विषयक भारतीय चिन्तन का इतिहास
बनाये रखना चाहते थे । तदनुसार पतंजलि के साथ ही संस्कृत भाषा का परिनिष्ठित रूप निर्धारित हो गया था तथा विकासशील भाषा के नूतन प्रयोगों को अन्तर्भूत करने के लिए जिस प्रकार निरन्तर नये-नये व्याकरणों के लिखे जाने की आवश्यकता होती है वैसी आवश्यकता अब संस्कृत को नहीं थी, क्योंकि भाषा का स्वरूप निश्चित हो गया था। ध्वनि, शब्दरूप तथा वाक्यरचना--इन तत्त्वों में स्थिरता आ गयी थी। नयी जातियों तथा सभ्यताओं के संपर्क से अथवा ज्ञान-विज्ञान के विकास से संस्कृत भाषा के शब्दकोश में वृद्धि का अवकाश अवश्य था। ये नये शब्द यदि संस्कृत के प्रकृति-प्रत्यय के आधार पर बने हों तब तो कोई बात ही नहीं, किन्तु यदि संस्कृतेतर मूल के भी रहे हों तो भी उनका 'संस्कृतीकरण' हो गया-संस्कृत-भाषा का रूप उन्हें ग्रहण करना पड़ा, संस्कृत उन्हें पचा गयी।
ऐसे समय में भाषा के प्रयोग-पक्ष (बहिरंग ) की अपेक्षा उसके अर्थपक्ष या दार्शनिक पक्ष ( अंतरंग ) के चिन्तन का भी साथ-ही-साथ क्रम चला। स्फोटायन तथा व्याडि की परम्परा में पतंजलि थे, जिन्होंने शब्द की नित्यता तथा अभिव्यंग्यता पर विचार करके द्रव्य, गुण, क्रिया, दिक, जाति, काल इत्यादि दार्शनिक तत्त्वों का भी यथावसर निरूपण किया । कारक-विषयक तत्त्व-चिन्तन में भी उनका महत्त्वपूर्ण योगदान है, जिसका निर्देश हम विभिन्न प्रकरणों में करेंगे।
भर्तृहरि के वाक्यपदीय में कारक-विचार _ उपलब्ध ग्रन्थों के रूप में महाभाष्य के अनन्तर द्विविध साहित्य व्याकरणशास्त्र में मिलता है। एक तो वह, जिसमें भाषा के बहिरंग का विश्लेषण हुआ है, दूसरा वह, जो इसके अन्तरंग से सम्बद्ध है। प्रथम कोटि के साहित्य में अष्टाध्यायी की वृत्तियों तथा प्रक्रिया-ग्रन्थों की परम्परा है तो दूसरी कोटि में वाक्यपदीय आदि दार्शनिक ग्रन्थ आते हैं । संख्या की दृष्टि से प्रथम प्रकार के ग्रन्थ ही अधिक हैं।
दूसरे प्रकार के ग्रन्थों में वाक्यपदीय का स्थान पाणिनितन्त्र में बहुत अभ्यहित है । इसके लेखक भर्तृहरि हैं, जिन्होंने भाष्य पर दीपिका-व्याख्या के अतिरिक्त वाक्यपदीय के प्रथम दो काण्डों पर स्वोपज्ञवृत्ति भी लिखी थी। इनका आविर्भाव-काल अनेक विवादों से परिपूर्ण है । युधिष्ठिर मीमांसक इन्हें ४०० वि० से पूर्व मानते हैं। भर्तृहरि महाभाष्य के अनन्तर तथा काशिका के पूर्व हैं, क्योंकि जयादित्य ( ६५० ई०) ने काशिका ( ४।३।८८ ) में वाक्यपदीय का उल्लेख किया है। इस प्रकार प्रायः आठ शताब्दियों के अन्तराल में भर्तृहरि की पूर्वोत्तरकाल-सीमाएँ हैं । दिङ्नाग (४८०-५४० ई० ) ने अपनी काल्य-परीक्षा ( श्लोक ३१-२ ) में भर्तृहरि की स्वोपज्ञ-टीका ( १।१ ) की दो कारिकाओं का उद्धरण दिया है। इससे निष्कर्ष निकलता है कि भर्तृहरि दिङ्नाग के वरीय समसामयिक होंगे२ । योगसूत्र ( ३।१७ )
१. सं० व्या० शा० इति० १, पृ० ३३८ । २. वाक्यपदीय, सं० अभ्यंकर-लिमये, पूना १९६५, पृ० ३५२ ।