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श्रीमद्भगवद्गीता जाय, किया जाय, अनुभव किया जाय, वह सबही जाता है, कुछ भी नहीं रहता। वह सबही भूत, सबही प्रकृति और सबही जड़ है। इनके भीतर मैं चेतना हूँ। "चेतना"-चेत्+अ+ना। चेत् अर्थमें यदि अर्थात् अनिश्चित । अनिश्चित क्या ? ना-"अ"। "अ" अर्थमें असत् , अर्थात् अस्ति, जायते, बर्द्धते, विपरिणमते, अपक्षीयते, विनश्यति, इन षट्विकार युक्त जो वही। और 'ना' अर्थमें नहीं। अतएव चेतना शब्दमें अनिश्चित षट्विकार युक्त नहीं जो वही, अर्थात् निधित। वही निश्चित हो "मैं" हूं ॥ २२ ॥
रुद्राणां शङ्करश्वास्मि वित्तशो यक्षरक्षसाम् ।
वसूनां पावकश्चास्मि मेरुः शिखरिणामहम् ॥ २३ ॥ अन्धयः। अहं रुद्राणां (मध्ये ) शंकरः, यक्षरक्षसां च ( मध्ये) वित्तशः ( कुवेरः) अस्मि; वसूनां पावकः (अग्निः ), शिखरिणां च ( मध्ये ) मेरुः अस्मि ॥ २३॥
अनुवाद। रुद्रगणके भीतर "मैं" शंकर; यक्षरक्षगणके भीतर कुवेर, वसुगणके भौतर अग्नि, और पर्वतोंके भीतर सुमेरु हूँ ॥ २३ ॥
व्याख्या। "रुद्राणां शङ्करश्चास्मि"। मैं रुद्रगणके भीतर शङ्कर हूँ। रुद्र ग्यारह हैं; यथा,-अज, एकपाद, अहिबध्न, पिनाकी, ऋत, पितृरूप, त्र्यम्बक, वृषाकपि, शम्भू , हवन और ईश्वर ।
षटपद्ममें साधकका जब वर्ण परिचय होता है, तब साधक 'द' 'य' 'प' और 'ख' इन चार योनि अर्थात् स्थिति के स्थानको दर्शन करते हैं। 'द' का स्थान मूलाधार और स्वाधिष्ठानके बीच वाले जगह कामपुरमें है। 'ब' का स्थान अनाहत चक्रमें है। 'प' का स्थान विशुद्धके ऊपर और आज्ञाके नीचे गर्दन और मस्तकके सन्धिमें है। और 'उ' का स्थान सहस्रारमें है।