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दशम अध्याय प्रति इन्द्रियके कार्यमें मैं करता हूँ, मैं देखता हूँ, ऐसे ऐसे जो व्यापार हैं, उसमें जो "मैं" है, वहो यह भूल मैं है। यह अनादि संस्कार-विशिष्ट है। सुख-दुःख, आदि-व्याधि, जरा-मरण भोग यही करता है। यही दर्शन-श्रवण आदि के भीतर पड़ करके निरन्तर परिवद्धित तथा परिपुष्ट हो करके सुखी, दुःखी बनता है। परन्तु शक्ति-अग्निके साथ जो शक्ति-स्वरूप है अर्थात् “इ+ य" युक्त है, उसका कुछ परिवर्तन नहीं है। वह किसीको ग्रहण भी नहीं करता त्याग भी नहीं करता। यह शक्ति-स्वरूप सदाकाल शान्त और स्थिर भावमें विरा-जती है। यह शक्ति-स्वरूप ''मैं" नहीं है वरंच इसमें मैं-ज्ञापक कुछ भी नहीं रहने से इसको "मैं नहीं" वा मन कहा जाता है ।
इस शक्ति-स्वरूपको "मैं-नहीं" वा मन कहनेका प्रति कारण यही है कि, जो शक्ति-अग्नि वा भूल मैं चञ्चलताके साथ रह करके सर्वदा चञ्चल होकर दौड़ता रहता है, उसकी जड़में यदि शक्ति-स्वरूप वा स्थिर मैं न रहता,-प्रत्येक जलनको जड़में यदि एक अचचल न रहे, तो तरंग माला टूटता तैरता किसके ऊपर ? उसी प्रकार "मैं-नहीं" रूप शक्ति-स्वरूपके ऊपरमें ही भूल मैं रूप अनादि-प्रवाह संस्कार पुञ्जका बनाना व बिगाड़ना रूप खेल चल रहा है। जो कुछ सुख दुःख वह इसीमें है। परन्तु जड़में "मैं-नहीं" रूप प्रकृत मैं स्थिर शान्ति शक्ति-स्वरूप ही है। लोग जिसको "मैं मैं” करके शोक मोहमें आच्छन्न होता है, वही भूल मैं है। इसलिये कहा हुआ है कि इन्द्रियके भीतर मन वा "मैं-नहीं" ही प्रकृत में है। इ=ह्रस्व शक्ति । ह्रस्व शक्ति कहनेका विशेष कारण यह है कि, व्यष्टिके भीतर विभूतिकी बात कहते हैं; समष्टिके भीतर विभूति दिखाने होता तो दीर्घशक्ति ही कहा जाता। __ "भूमानामस्मि चेतना"। भूत समूहके भीतर "मैं" चेतना हूँ। भूत =जो जाता है। जगत् प्रपञ्चके भीतर जो देखा जाय, सुना